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कर्ता : श्री पूज्य ज्ञानविमलसूरिजी महाराज 22 तुम हो बहु-उपगारी ! सुमति-जिन ! तुम हो० । मेघ-नृप-नंदन आनंदन, मंगला-मात तुमारी-सुमति० ।। १ ।। पंचम-जिन पंचमी-गतिदाता पंच-महाव्रतधारी । पंच-विषय-विकाररहित जिन, पंचम-नाण-विचारी-सुमति० ।। २ ।। प्रभु ! तुम दरिसण निश्चय कीनो, सेवु सेवा तुमारी । सुमति-सुवास वसी मन-भीतर, क्या करे कुमति बिचारी ?-सुमति० ।। ३ ।। ज्युं घृत दूध सुवास कुसुममें, प्रीति बनी एक-तारी । दिल भरी देखी मेरे साहिबको विसरे कोण अ-विचारी ?-सुमति० ।।४ ।। सुरतरू-सुरमणिथी तुम आणा, अधिक लगी मोहे प्यारी । जिणथी दूरे गई भव-भवकी, दुर्गति-हमसे अटारी-सुमति० ।।५।। तीन भुवन मनमोहन साहिब, सेवे सुर-नरनारी । ज्ञानविमल-प्रभु-चरण शरणकी, जाउं मैं बलिहारी-सुमति० ।।६।।
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