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कर्ता : श्री पूज्य दानविजयजी महाराज - 12 अलवेसर अवधारियेजी, जग-तारण जिन-भाण । चाहुं छु तुज चाकरीजी, पण न मले अहिनाण प्रभुजी ? छे मुज तुजशुं रे प्रीति, ज्युं घन-चातक-रीति-प्रभुजी०।। १ ।। दुश्मन कर्म ए माहरांजी, न तजे केड लगार । आठेने आप-आपणोजी, अवर-अवर अधिकार-प्रभुजी०।।२।। घेरी रहे मुजने धणुंजी, न मिले मिलण उपाय । जीव उदास रहे सदाजी, कळ न पडे तिणे क्यांय-प्रभुजी.।।३।। शिर उपरे तुम सारीखोजी, जो थे प्रभु ! जिनराय ! तो करशुं मन चिंतव्युंजी, देई दुश्मन-शिर पाय-प्रभुजी.।।४।। सन्मुख थई मुज साहिबाजी, दुश्मन दूर निवार। दानविजयनी विनतिजी, अर-जिनवर ! अवधार-प्रभुजी.।।७।।
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