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कर्ता : पूज्य श्री ज्ञानविमलजीसूरि महाराज - 12 सुणो शांति-जिनेसर ! साहिबा ! सुखकार | करुणासिंधु रे।। प्रभु ! तुम-सम को दाता नहि, निष्कारण-त्रिभुवन-बंधु रे-सुणो०(१) जस नामे अखय-संपद होए, वळी आधि तणी होये शांति रे, दुःख-दुरित उपद्रव सवि मिटे, भांजे मिथ्या-मति-भ्रांति रे-सुणो (२) तुं राग-रहित पण रीझवे, सवि सज्जन केरां चित्तरे निर्द्रव्य अने परमेश्वलं,विण नेहे तुं जग-मित्त रे-सुणो०(३) तुं चक्री पण भव-चक्रनो, संबंध न कोई कीध रे तुं तो भोगी योगी दाखिओ, सहजे समता-रस सिद्ध रे-सुणो०(४) विण-तेड्यो नित्य सहाय छे, तुज लोकोत्तर-आचार रे कहे ज्ञानविमल गुम ताहरा, लहियें गणवे किम पार रे-सुणो०(७)
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