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कर्ता : श्री पूज्य न्यायसागरजी महाराज-12 श्री अनंतप्रभो संतहृदये विभो ! गुण अनंता रहे ध्यान रूपा . अतिशयवंत महंत जिनराजीया, वाजिया परि सदा सकळ रूपा-श्री०(१) ज्ञानदर्शन सुख समक्तिाखय-थिति, अरूपी अवगाहना अखय भावे वीर्य अनंत ए अष्टक उपनु, आठ कृत कर्म केरे अभावे-श्री० (२) श्येन निज क्रूरता टाळवा तुम पढ़े, लंछन मिसि रह्यो सेव सारे सदयता सुभगतादिक गुण तुम तणी, सेवना पावनानें आधारे-श्री० (३) सिंहसेन भूप सुजसा तणो नंदनो, चौदमो चौद भूयगाम पाळे, चउद गुणठाण सोपान चढी निज गुण, आवता आपमांहि संभाळे-श्री०(४) अनंतजिन-सेवथी अनंत-जिनवर तणी, भक्तिनी भक्त निज शक्ति सारं, न्यायसागर कहे अवनितळे जोयता, एह सम अवर नहीं कोय तारु-श्री०(५)
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