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कर्ता : श्री पूज्य आनंदधनजी महाराज ऋषभ-जिनेश्वर प्रीतम' माहरो रे, ओर न चाहुं रे कंत' । रीइयो साहिब संग न परिहरे रे, भांगे सादि-अनंत. ऋ0।।१।। प्रीत-सगाई रे जगमां सहु करे रे, प्रीत-सगाई न कोय । प्रीत-सगाई रे "निरुपाधिक" 'कही रे, सोपाधिक धन खोय ऋ०।२।। कोई कंत-कारण काष्टभक्षण करे रे, "मिलरों कंतने धाय"। ए मेळो नवि कहीयें संभव रे, मेळो ठाम न ठाय, ऋ-0।। ३ ।। ए पति-रंजन अति - घणो तप करे, पति-रंजन तन-ताप"। ए पति-रंजन में नवि चित्त धयुं रे, "रंजन धातु-मिलाप'' ऋ०।४।। कोई कहे-"लीला रे अ-लख अ-लख" तणी रे, लख" पूरे मन आश" । दोष-रहितने लीला नवि घटे रे; लीला दोष-विलास" ऋ०।।७।। चित्त प्रसन्न रे पूजन-फळ कह्यु रे, पूजा अखंडित एह । कपट-रहित थई आतम-अपरणारे, आनंदधन पद रेह" ऋ०।।६।।