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कर्ताः पूज्य श्री मोहनविजयजी महाराज 4 अरज सुणो एक सुविधि-जिणेसर, परम-कृपानिधि तुमे परमेसर, साहिबा ! सुज्ञानी ! जोवो तो वात छे मान्यानी कहेवाओ पंचम-चरणना धारी, किम आदरी अश्वनी असवारी _ -साहिबा० (१) छो त्यागी शिववास वसो छो, दृढरथसुत रथे किम बेसो छो - साहिबाo आंगी प्रमुख परिग्रहमां पडशो, हरि-हरादिकने कीण विध नडश्यो ___- साहिबा०(२) धुरथी सकळ संसार निवार्यो, किम फरी देव-द्रव्यादिक धार्यो - साहिबा० तजी संजमने पाश्यो गृहवासी, कुण आशातना तजशे चोराशी -साहिबा०(३) समकित-मिथ्या मनमें निरंतर, ईम किम भांजशे प्रभुजी अंतर-साहिबा० लोक तो देखशे तेह कहेश्ये, इम जितना तुम किण विध रहश्ये -साहिबा०(४) पण हवे शास्त्रगते मति पहोंची, तेहथी में जोयुं ऊडु आलोची-साहिबा० इम कीधे प्रभुताइ न घटे, सांहमुं इम अनुभव गुण प्रगटे
-साहिबा०(५) हय-मय यद्यपि तुं आरोपाए तो पण सिद्धपणुं न लोपाए-साहिबा० जिम मुगटादिक भूषण कहेवाए, पण कंचननी कंचनता न जाए -साहिबा(६) भक्तनी करणी दोष न तुमने , अघटित केहबुं अजुक्तने अमने-साहिबा० लोपाए नहि तुं कोईथी स्वामी, मोहनविजय कहे शिरनामी -साहिबा०(७)
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