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________________ दश हजार वरसतणुं भे, पाल्यु परगट भाय, पदमविजय कहे पुण्यथी, नमीये ते जिनराय ॥३॥ स्तवन : नित्य नमीये नमि जिनवरूरे जो, जे एक अनेक स्वरूपजो, नित्य अनित्य पणे वलीने, जेहना गुणमति अद्भुतजो॥२॥ नित्य... अवयवी अवयव रूप छे जो, जे अस्ति नास्ति स्वभाव जो, वळी गुणातीत ने जे गुणीजो, रूपातीत स्वरूपी भावजो ॥२॥ नित्य... व्यय उत्पत्ति ध्रुव जेह छेजो, जे वेदी भवेदी विचारजो, भिन्नभिन्न पण करीजो, नित्य भोगवे सुख श्रीकारजो॥३॥ नित्य... कर्ता अकर्ता जेह छेजो, वली भोक्ता अभोक्ता जेहजो, सक्रिय अने अक्रिय वली जो, परिणाम इतर गुण गेहजो ॥४॥ नित्य.. योगातीत योगीस्वरुपजो, वर्णातीत ने तदवंतजो; स्याद्वादे अणि परे करीजो तु सिख स्वरूप भगवंतजो॥५॥ नित्य.. इम जिनवरने ओलखीजे, जे थिर मन करी करे सेवजो, उत्तम भविजन ने होवेजो, कहे पद्मविजय पोते देवजो॥६॥ नित्य... थोय: नमिये नमिनेह, पुण्य थाये ज्यु देह, अघ समुदाय जेह, ते रहे नांहीरेह; लहे केवल तेह, सेवना कार्य मेह, लहे शिवपुर गेह, कर्मनो भाणी छेह ॥१॥
SR No.032202
Book TitleChovish Jina Prachin Stuti Chaityavandan Stavan Thoyadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Vidyarthi Kalyan Kendra
Publication Year
Total Pages58
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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