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श्री प्राचीनस्तक्लायती .. . . . [७३ संसाम सुजात ॥ तु० ॥ हरिहर ब्रह्मादिक आसधतां, न टले गर्भावास । तिण इण भव कीपी में आखड़ी, शीश नमावण तास ॥ तुं० ॥ २॥ जे पोतेपरनी आशाकरे, तेस्युं पुरे आसा संतोष्यो प्रिण रांक न देसके, अविचल लील विलास ॥तुं०॥॥ अंतरगत सुमनसु अलोकतां, ए कीधो निस्वार । तुझ विण देव न को बीजो अछे, शिव सुखनो दातार ॥ तुं०॥४॥ करो महर भव जल थल हर थकी, प्रवहण सम जिनराज । जो करी ग्रह सेवक ने तारस्यो, तो हिज रहसी लाज तुं० ॥५॥
दाल छड़ी
देशी हमीरियानी स्वामी स्वयं प्रभु साँभलो, करो निवाल काज। जगजीवन विरूद गरीब निवाजनो। जिम जगपुंड थिर थाय ॥ ज०॥सां० ॥१॥ पोताना अरियण हण्या, तिण अरियण कहंत ॥ ज०॥ जो मुझ अरिदल निरदलों, सो सांचो अरिहल ।