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श्री प्राचीनस्तक्नावली. . . . . . [६५ रूडी, भविजन शिवसुख दायाजी । तिण कारण अर नमि मल्लीजिन, प्रणमीजे चित्तलायाजी ॥१॥ भरते ऐरवत दशखेत्रे इम गिणता, पंचाशत कल्याणोजी। पंचाशत त्रिक काले गिणता, नम शरशशिमित जाणोजी। काल अनंत करी इमहिज गणता, कल्याणक सेवंताजी, सुदिग्यारस जिनध्यान धरता, पामे लाभ अनंताजी ॥२॥ सुदि एकादशी चउविहार व्रत, पौषध अट्ठ पहरीलीजेजी।पुस्तकदेखी डेढसो कल्याणक, थिरचित जाप जपीजे जी.कर्म निकाचित. कर्दम. रविकर, शमपरिणाम ग्रहीजेजी। त्रिकरण कर जिन प्रवचन पूजत, निर्मल बोध लहीजेजी ॥३॥ इग्यारे वरस इग्यारस तप कर, उजमणो वली कीजेजी। दिनदिन अधिकी भावना भावो, संपद सहज वरीजेजी। खरतर गच्छ नव निधि उदयकर,वाचक चारित्र नंदोजी। शान्निद्ध करे जसु शासन देवी, आपे श्री सुख कंदोजी ॥४॥