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४. . . . . श्री प्राचीनस्तवनावली ओ संसार असाररे सो० ॥१६॥राज छोडी संजम लीयोरे लाल। करता उग्र विहाररे सो० ॥ तप तपीया अति आकरारे लाल। जाणे मेरु समानरे सो॥श्री०॥१७॥ कर्म खपाय हुआ केवलीरे लाल। पहोंता छे मुक्ति मझाररे सो०। कर जोडी कवीयण कहर लाल। म्हारी आवागमन निवाररे सो० ॥मने भवजल पार उताररे सो० मने मुक्ति मारग पोचायरे सो०। मारो जन्म मरण निवाररे सो०॥ १८॥
॥स्तवन॥ सोहे सोरठ देशमें, तीरथ उत्तम एह । जात्रा करण आवे घणा, जिहां भविजन गुण गेह ॥१॥ जिण ए गिरि फरस्यो नहीं, नवी निरख्यो नयणेह । शक्ति छता विण अनुभवे, गर्भावास नर तेह ॥२॥दीपे मरूधर देशमें, फल वर्द्धापूर सार। तिण के वासी बहु गुण, सुकृत भंडार।ओसवंश अधिक जस,गडिया गोत्रसु नाम।