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416 मतभेद करालजी, जिन केवली पूरवधर विरहे, फणी सम पंचम कालजी । वी० ४ तेहनुं झेर निवारण मणि सम, तुज आगम तुज बिंबजी। निशि दीपक प्रवहण जिम दरीये, मरूमां सुरतरू लुंबजी। वी० ५ जैनागम वक्ताने श्रोता, स्वाद्वाद शुचि बोधजी। कलिकाले पण प्रभु तुज शासन, वर्ते छे अविरोधजी। वी० ६ मारे तो सुषमाथी दुषमा, अवसर पुन्य निधानजी । क्षमाविजय जिनवीर सदागम, पाम्यो सिद्धि निदानजी। वी० ७
(1) श्री सामान्य जिन स्तवन आनंदकी घडी आइ, सखिरि आज आनंदकी घडी आइ० २...करके कृपा प्रभु दर्शन दीनो, भवकी पीर मीटाई; मोह निंद्रासे जाग्रत करके, सत्यकी सान सुनाई, तन मन हर्ष न माई. ॥१॥ नित्यानित्यकी तोड बताकर, मिथ्या दृष्टि हराई; सम्यग्ज्ञानकी दिव्यप्रभाको अंतरमें प्रगटाई, साध्य-साधन दिखलाई. ॥२॥ त्याग वैराग्य संयम योग से, निस्पृह भाव जगाइ. सर्वसंग परि त्याग करा कर, अलख धून मचाई, अपगत दुःख कहलाई. ॥३॥ अपूर्वकरण गुणस्थानक सुखकर, श्रेणी क्षपक मंडवाइ, वेद तीनो का छेद कराकर, क्षीण मोही बनवाइ, जीवन मुक्ति दिखलाई. ॥४।। भक्त वच्छल प्रमु करुणा सागर, चरण शरण सुखदाई, जश कहे ध्यान प्रभुका ध्यावत, अजर अमर पद पाई, द्वंद सकल मिट जाई...सखिरी० ॥५॥
(2) श्री सामान्य जिन स्तवन मारी नावलडी मजधार, तारो प्रभु अकज छे आधार...तारो० ॥१॥ शासन पामी ताहरूं रे, नहीं चिंता तलभार, पूरवना कोई अढळक पुण्ये, दीठो तु देदार...तारो० ॥२॥ अनादिकालनी अंतरनी प्रभु, वात सुणावू हुं नाथ, कृपा करीने तुं सांभळजे, बीजो नथी सांभळनार...तारो० ॥३।। देव नरकने मनुष्य तिर्यंचमां, दुःख सह्या वारंवार, विषय कषायमां मस्त बनीने, फुल्यो तुं फूलणहार...तारो० ॥४॥ अशुभ विचारोने, वाणीविलासो, काया कुंडु करनार, इंद्रियोनी प्रभु वासना मूंडी, लपटायो तारणहार...तारो० ॥५। क्रोध करीने मानी बनीने, कपट कीधां बहु वार, सौथी मूंडो लोभ चंडाल जे, पापो करावे अपार...तारो० ॥६॥ तुं विरागी हुँ छु रागी, भक्ति करु भारोभार, भ्रमर इलिका न्याये प्रभुजी, थईशुं तुम सम नाथ...तारो० १७।। शांत मुद्रा