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भाव तादात्म्यमां माहरुं ते नहीं,॥७] तिणे परमात्म प्रभु भक्ति रंगी थई, शुद्ध कारण रसे तत्त्व परिणतिमयी; आत्म ग्राहक थये तजे परग्रहणता, तत्त्व भोगी थये टळे परभोग्यता, ।।८। शुद्ध निःप्रयास निज भाव भोगी यदा, आत्मक्षेत्रे नहि अन्य रक्षण तदा; एक असहाय निस्संग निरद्वंद्वता, शक्ति उत्सर्गनी होय सहु व्यक्तता, ॥६॥ तिणे मुज आतमा तुज थकी नीपजे, माहरी संपदा सकळ मुज संपने; तेणे मन-मंदिरे धर्म प्रभु ध्याइये, परम देवचंद्र निज सिद्ध सुख पाईये ॥१०॥
(8) धर्मनाथ जिन स्तवन (राग–अमिभरेली नजरूं राखो)
पूरजो मारी आश जिनेश्वर, (२) जेम पामुं शिवपुर वास, (२) धर्म जिनेश्वर ध्याइए, आणी अधिक स्नेह (२) गुण गाता गिरुआ तणा, वाधे बमणो नेह,॥१॥ काल अनादि निगोदमांहि, वसिओ काल अनंत, कर्म कठोरे रोलव्यो, सेव्या पाप अढार ॥२॥ प्राणातिपात मृषा घणुं रे, त्रीजुं अदतादान, विषय रसमां राचियो, रे कीधुं बहु दुर्ध्यान ॥३॥ नवविध परिग्रह मेलव्यो रे कीधो क्रोध अपार, मान माया लोभे करी, न लह्यो तत्त्वविचार ॥४॥ रागद्वेष कलह कर्या दिधा परने आल, पैशुन्य रति अरति वली,-सेव्यां दुःख असराल॥५॥ दोष दीधां गुणवंतने रे, कीधां माया मोस, मिथ्यात्वशल्य दोषे करी, कीधो अविरति पोष,॥६।। पापस्थानक सेवी जीवडो रे, रूल्यो चउगति मोझार, जन्म मरणादि वेदना, सही ते अनंत अपार ॥७॥ एह विडंबना आकरी रे, टाले श्री जिनराय, ब्राह्मग्रहीने तारजो, सारो सेवक काज॥८॥ धर्म जिणंद स्तवना थकी रे, पहोंची मननी आश, जिन उत्तम पद सेवता, रल लहे शिववास॥६॥
(9) धर्मनाथ जिन स्तवन (वीर मधुरी वाणी भाखे) ___धर्म जिनवर दरिशन पायो। प्रबल पुण्ये आज रे। मानुं भवजल राशि तरवां, जड्युं जंगी जहाज रे। ध० १ सुकृत सुरतरू सहेजे फळीयो, दुरित टळीयो वेगे रे । भुवन पावन स्वामी मिलीयो, टल्यो सकल उद्वेग रे। ध० २ नाम समरूं रात दिहा, पवित्र जिहा होय रे । फरी फरी मुज एह निहा, नेह नयणे जोय रे। ध० ३ तुहि माता तुंहि त्राता। तुहि भ्राता सयण रे ।