________________ 233 मन रंजन माहरो रे लाल, दिलडानो जाणणहार मारा वालाजीरे, हवे नहि छोडुं तारी चाकरीरे लोल / / 1 // लाख चौराशी हुं भम्यो रे लाल, काल अनंतो अनंत / / मारा० // 2 // ओलग कीधी में प्रभुताहरीरे लाल, मांगी छे भवतणी अंत // मारा०॥३॥ करी सुनजर हवे साहिबारे लाल, दासधारो दिलमांही // मारा०॥४।। लाखगुन्हे पण ताहरोरे लाल, सेवक हु महाराज / / मारा०।।५।। अवगुण गणतां माहरारे लाल, नहि आवे प्रभुजी पार / / मारा०॥६॥ पण जिन प्रवहणनी परेरे लोल, तुमे छो तारणहार // मारा०॥७॥ नगरी अयोध्यानो * धणीरे लोल, विजय उर सरहंस / / मारा०||८|| जितशत्रु रायनो नंदलोरे लोल, धन इक्ष्वागनो वंश / / मारा०॥६॥ धनुशय साडाचारनी रे लोल, देहडी रंग सनूर / / मारा०॥१०।। बहोतेर पूरव लाखनुरे लोल, आयु अधिक सुखपुर // मारा०।११।। पंचम आरे तुं मल्योरे लोल, प्रगट्यां छे पुण्य निधान // मारा०।।१२॥ सुमति गुरु पद सेवतां रे लोल, राम अधिक गुणवान // मारा०।।१३।। __(6) श्री अजितनाथ जिन स्तवन पंथडो निहाळु रे बीजा जिन तणो रे, अजित अजित गुण धाम; जे तें जीत्यां रे तेणे हुं जीतीयो रे, पुरुष किष्यु मुज नाम ।पं०। 1 चरम नयण करी मारग जोवतां रे, भूल्यो सयल संसार; जेणे नयणे करी मारग जोईये रे, नयण ते दिव्य विचार |पं०। 2 पुरुष परंपर अनुभव जोवतां रे, अंधोअंध पलाय; वस्तु विचारे रे जो आगम करी रे, चरण धरण नहीं ठाय |पं०। 3 तर्क विचारे रे वाद परंपरा रे, पार न पहोंचे कोय; अभिमत वस्तु वस्तुगते कहे रे, ते विरला जग जोय ।पं०। 4 वस्तु विचारे रे दिव्य नयन तणो रे, विरह पड्यो निरधार; तरतम जोगेरे तमतम वासनारे, वासित बोध आधार ।पं०। 5 काळलब्धि लही पंथ निहाळशुं रे, ओ आशा अवलंब; ए जन जीवे रे जिनजी जाणजो रे, आनंदधन मत अंब ।पं०। 6 (7) श्री अजितनाथ जिन स्तवन अजित जिणंदशुं प्रीतडी, मुज न गमे बीजानो संग के; मालती फुले मोहीयो, किम बेसे हो बावळ तरु भंग के, अ० 1 गंगाजळमां जे रम्या,