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रोगिमृत्युविज्ञाने अग्नेलं स्वरो वर्णों वागिन्द्रियमनोवलम । हीयन्ते त्वतिनिद्रस्या-प्यनिद्रस्यायुषः क्षये ॥ २४ ॥
आयु के क्षय में अर्थात् स्वल्प आयु रह जाने पर उस मनुष्य को अत्यन्त निद्रा आती है, अथवा अनिद्र-विल्कुल ही निद्रा नहीं आती. है, और अग्नि का बल-क्षुधा नष्ट होता है, स्वर-शब्द, वर्ण-शरीर की प्रभा अर्थात् सौन्दर्यादि वाक्-वाणी, स्पष्ट उच्चारण न कर सके, इन्द्रिय-चक्षुः कर्णादिक इन्द्रिय, और मन तथा बल ये जिसके कम हो जाय, ऐसे अतिनिद्र एवम् अनिद्र को समझ ले कि इसकी आयु कम अवशिष्ट है यदि अग्निमान्द्यादि पूर्वोक्त नहीं उत्पन्न हों तो चिकित्सा करे, यह पूर्ण अरिष्ट नहीं है । और यदि अग्निबलादिक नष्ट हो गया हो तो अरिष्टोत्पत्ति मानकर चिकित्सा न करे ॥ २४ ॥
गोविटचूर्णेन सदृशं चूर्ण यन्मूनि जायते । सस्नेहं भ्रश्यते चैव मासमात्रं स जीवति ॥ २५ ॥ जिसके मस्तक में गोबर के चूर्ण के समान अर्थात् गोबर के कर्स (चरा) के सदश चूर्ण उत्पन्न हो जाय और वह चा स्नेहयुक्त के समान अर्थात चिक्कण या चमकीला मस्तक से गिरे, तो वह मनुष्य केवल एक महीनामात्र फिर जियेगा, अरिष्ट की चिकित्सा नहीं होती है-यह प्रथम ही कह आये हैं ।। २५ ॥
सहस्रशश्चानुभूतं सिद्धं सविधि योजितम् । न सिध्येत् भेषजं यस्मिन् तं नैव तु चिकित्सताम् ।। २६ ॥ जो प्रयोग हजारों बार अनुभव किया हुआ अचूक सिद्ध निश्चित और विधिपूर्वक पथ्यादि सेवन कराकर दिया जाता हो और फिर भी जिस रोगी को लाभ न करे, उसकी चिकित्सा न करे ॥ २६ ॥