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पञ्चमोऽध्यायः
व्याधीनां चयमापन्नः शुष्कास्यो ज्ञानवर्जितः । यस्तं लुप्तक्रियाभोगं ज्ञात्वा मरणमादिशेत् ॥ २५ ॥ जो रोगी व्याधियों के समुदाय को प्राप्त हो अर्थात् जिसे अनेक रोग उत्पन्न हो गये हों, शुष्कास्य-पिपासा से मुख सूखता हो अर्थात् पिपासा शान्त न हो और ज्ञानरहित हो, इस प्रकार के क्रिया भोग शून्य उस रोगी को समझकर उसके मरण को कह दे, उस मरणासन्न की चिकित्सा न करे ।। २५ ।।
संवृता लोमकूपाः स्युः शिराश्च हरिता अपि । अम्लाभिलाषो यस्य स्यात्स पित्तान्मृत्युमाप्नुयात् ॥ २६ ॥
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जिसके सब रोमकूप संवृत - ढक जायँ और नसें हरितवर्ण की हो जायँ, तथा खट्टा खाने की विशेष इच्छा हो, वह पित्त रोग से अवश्य शीघ्र मरेगा ॥ २६ ॥
प्रभया शोभतेऽत्यर्थ शरीरं चातिशुष्यति ।
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बलं यस्य क्षयं याति तं यक्ष्मा नाशयिष्यति ॥ २७ ॥ जिसकी प्रभा अत्यधिक शोभायमान हो, अर्थात् शरीर की कान्ति बढ़ जाय परन्तु शरीर अत्यधिक सूखता जाता हो, और उसके बल का क्रमशः नाश होता हो उस रोगी को यक्ष्मा मार देगा, अर्थात् असाध्य यक्ष्मा उत्पन्न होकर उसे मारेगा ॥। २७ ॥
अंसाभिताप श्रानाहश्छर्दनं शोणितस्य च ।
पार्श्व शूलं च हिकाः स्युर्यस्य शोषश्च सोऽन्तभाक् ॥ २८ ॥ जिसके अंसाभिताप हो सदा पार्श्व भाग अभितप्त रहता हो और आनाह - सदा पेट चढ़ा रहता हो, कभी-कभी रुधिर की कै- दमन होती हो, पार्श्वशूल हो, हिक्काओं का जोर हो, अधिक हिक्का आती हो - और शरीर में शोथ हो गया हो वह अवश्य शीघ्र उसी दिन मरेगा ।। २८ ।।