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चतुर्थोऽध्यायः
५३ जिसके नेत्र ऊअर चढ़े हुये हों और नेत्रों की धमनी कंपनशील नीचे झुकी हुई हों, तृषार्त-पिपासा शान्त न हो और तालु प्रदेश सूखा हो तथा निर्बल ( बल रहित ) हो वह अवश्य मर जायगा, दोष स्थिति के अनुरूप समय की वैद्य स्वत: कल्पना करे ॥ ३२॥
यस्य स्थूलौ कपोलौ स्तो ज्वरकासौ च दारुणौ । नाभिनन्दति चाप्यन्नं शूलवान् स मृतोपमः ॥ ३३ ॥ जिस शूल रोगी के कपोल स्थूल हो जाय और ज्वर खांसी उग्र रूप से बढ़ जाय, अन्न से रुचि हट जाय, कुछ भी भोजन न करे, उसे मरणासन्न समझे ॥ ३३ ॥
यस्य भ्रवौ निपतितौ जिह्वा स्यात कण्टकाचिता। ऊर्ध्वव्यावृत्तजिह्वाक्षः स मरिष्यति सत्वरम् ॥ ३४ ॥ जिसकी भृकुटी, भौंहें नीचे की तरफ झुक जायँ और जिह्वा कण्टकों से युक्त हो जाय अर्थात् जीभ पर कांटे २ मे मालूम दें, कोई वस्तु खाई न जा सके। तथा जिह्वा और आँखे उलट जाँय अथवा टेढी हो जायँ वह जल्दी ही मर जायगा ॥ ३४ ॥
शेफश्च्चात्यर्थमुत्सितं बृपणौ निःसृतौ भृशम् ।
यद्वा तयोर्विपर्यासो विकृत्या मृत्युबाधकम् ॥ ३५ ॥ - शेफस-जननेन्द्रिय अत्यन्त दब जाय, भीतर की तरफ़ चली जाय और वषण-अण्डकोश बाहर की तरफ बढ़ कर आ जांय, अथवा विपरीत हो जांय जननेन्द्रिय अत्यधिक बढ़ जाय और वृषण अन्तर्गत हो जाय तो यह विकृति मृत्यु की बोधिका होती है, परन्तु अण्डकोशों में जल बढ़ जाने से अथवा वायु मांस मेदा के बढ़ जाने से इन्द्रिय में ह्रास हो जाने पर अरिष्ट की कल्पना नहीं करना ॥ ३५ ॥