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चतुर्थोऽध्यायः विरुद्धहेतवो रोगा विरुद्धोपक्रमा भृशम् ।
वेगतश्चातिवर्द्धन्ते यस्य शीघ्र स नक्ष्यते ॥ २५ ॥ जिसके विरुद्ध हेतु वाले अनेक रोम उत्पन्न हो गये हों और उनका उपक्रम भी विरुद्ध हो, जैसे एक उपद्रव का उपशम करते हैं तो दूसरा उपद्रव अत्यधिक हो जाता है और वे रोग अथवा उपद्रव बड़े वेग से अत्यधिक स्वरूप में बढ़ते हैं तो वह रोगी शीघ्र ही नष्ट हो जायगा, उसी दिन मर जायगा ॥ २५ ॥
अहणीमांसरुधिरं बलं ज्ञानं च रोगता। क्षीयन्ते त्वरयैतानि न्यस्य क्षिप्रं स नंक्ष्यते ॥ २६॥
ग्रहणी- मलग्राहिका शक्ति, मांस, रुधिर, बल, ज्ञान और रोगज्वरादिगत संतापादि-जिसके एक दम जल्दी से नष्ट हो जॉय वह जल्दी ही मर जायगा, संग्रहणी वालों के अन्तिम दिन दस्त बन्द हो जाते हैं, दस्त बन्द होने के समनन्तर केवल एक दिन या पन्द्रह घंटा जीता है, कभी २ एक दम सहसा सर्वथा ज्वर उतर जाने पर भी वह दो तीन घंटे में मर जाता है, अतः सर्वथा एक दम ज्वर उतारने का यत्न न करे ॥ २६ ॥
विकाराः सहसा यस्य परिसर्पन्ति सर्वतः।
प्रकृतिहीयते चापि तं मृत्युनयते हठात् ॥ २७ ॥ जिस रोगी के विकार-उपद्रव सर्वतोभाव से सहसा बढ़ जॉय और प्रकृति (स्वभाव) भिन्न प्रकार की हो जाय, उसे मृत्यु अवश्य ले जायगी ॥२७॥
प्रतिलोमानुलोमभ्यां संसृज्यन्ते रुजो भृशम् । ग्रहणी यस्य हीना स्यात् स पक्षान्नाधिकं वसेत् ॥ २८ ॥ जिसका रोग प्रतिलोम और अनुलोम से युक्त हो अर्थात् कभी घटे और कभी सहसा अधिक हो जाय और मलग्राहिका शक्ति