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द्वितीयोऽध्यायः
अतीन्द्रिय पदार्थों को बता देता है, वह एक वर्ष से अधिक नहीं जीवित रहता है, अर्थात् उसी वर्ष में वह मर जायगा ॥ १६ ॥
स्वस्थाः प्रज्ञाविपर्यासैरिन्द्रियार्थेषु वैकृतम् । पश्यन्ति बहुशो ये वा न ते यान्त्यब्दतः परम् ॥ १७ ॥
जो (स्वस्थ) किसी प्रकार के भी रोग से रहित मनुष्य बुद्धि के विपर्यास से अर्थात् बुद्धि के उलट फेर के कारण पदार्थों में प्रायः विकार को देखते हैं, वे एक वर्ष से अधिक नहीं जियेंगे ॥ १७ ॥
स्वस्थानामायुषो ज्ञानं विमृश्येदं मयेरितम् ।। बहुधा च परीक्ष्यैव तद् गृहेऽन्यं वदेद् भिषक् ॥ १८॥ यह स्वस्थ नीरोग मनुष्यों के आयुर्दाय (उमर का ज्ञान) मैंने चरकादि ग्रन्थों के आश्रित मुनिप्रणीत वचनों को विचार कर कहा है, प्रायः अनेक प्रकार से परीक्षा कर के अरिष्ट के लक्षण देख कर उस अरिष्ट-लक्षण-प्राप्त मनुष्य के घर में दूसरों से वैद्य कह दे कि अमुक मनुष्य एक वर्ष के अन्दर मर जायगा । अर्थात् यह एक वर्ष से अधिक नहीं जियेगा। इस प्रकार कहने से यश उसको होता है, जनता उत्तम वैद्य मानती है, परंतु सर्वतोभाव से न कहे, किन्तु आत्मीय प्रशंसक विज्ञ सत् लोगों से ही कहे ॥ १८ ॥
स्नानानुलिप्तदेहेऽपि यस्मिन् गृध्नन्ति मक्षिकाः । स प्रमेहमनुप्राप्य नाशाय प्रभविष्यति ॥ १९ ॥ स्वस्थ स्नानादि किये हुये स्वच्छ जिस मनुष्य के ऊपर मक्खियाँ अत्यधिक पड़ती हैं, देह पर चिपकती हैं, वह मनुष्य एक वर्ष के अन्दर प्रमेह रोग को प्राप्त होकर मृत्यु को प्राप्त होगा ॥१६॥
प्रायासश्चिन्तनोद्वेगौ मोहश्चास्थानके रतिः । अरतिबलहानिश्चोन्मादे याता निहन्त्यमुम् ॥ २० ॥