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रोगिमृत्युविज्ञाने वीतीभावस्तु रुधिरामिषयोरपि जायते । स्त्रंशो भ्रंशश्च्युतिरथो सन्धीनामुपपद्यते ॥ ५० ॥ रुधिर और मांस वहां का कुछ समय के लिये शून्यरहित हो जायगा । एवं उस स्थान का स्रस-सरक जाना, ध्वंस-इतस्ततः छिन्न भिन्न हो जाना अथवा वहाँ के सन्धि स्थानों की च्युति-इतस्ततः बहना, अर्थात् उसके अङ्ग बहते हुये से प्रतीत होने लगेंगे । तात्पर्य यह, कि वह स्थान यथावस्थित स्वरूप न रहेगा ॥ ५० ॥
स्तम्भः स्वेदानुबन्धस्य दारुणत्वं च वा भवेत् । यच्चान्यद् विकृतं किंचित् तत्सर्व वैपरीत्यधृक् ॥ ५१॥ तथा अत्यधिक पसीना आता हो परंतु उस स्थान के स्पर्श से (एकदम) सहसा पसीना रुक जाय, अथवा वह स्थान कठोर हो जाय, भावार्थ यह है कि जो कुछ उस स्थान पर विपरीत अथवा यथावस्थित होगा उससे विपरीत हो जायगा ॥ ५१ ॥
पादं जंघोरुपाश्र्वाघ्रि-पाणिपृष्ठेषिकास्वपि । ललाटे चाधिकं स्तब्धं शीतं स्विन्न प्रजायताम् ॥ ५२ ॥ पैर, जङ्घा, ऊरु-फीली-पैर से लेकर जङ्घा की गाँठ पर्यन्त, पार्श्वपसली, अध्रि-चरण, पाणि-हाथ, पृष्ठ-पीठ-ईषिका-रीढ़ पीठ की लम्बी हड्डी में तथा जिसके मस्तक में अत्यधिक सघन ठण्ढा पसीना उत्पन्न हो, उसे असाध्य समझकर यह मरण का सूचक अरिष्ट उत्पन्न हो गया है यह जानकर छोड़ दे ॥ ५२ ॥ .
अरुद्धं रोधितं स्विन्नं पश्येद् दुबेलमातुरम् । रक्तामिषेण शून्यं च स्वल्पजीवं त्यजेद् भिषक् ।। ५३ ॥ वैद्य जिस रोगी के आता हुआ रोका गया पसीना नहीं रुकता है ऐसा देखे और दुर्बल रक्त मांस से रहित उस रोगी को स्वल्प समय तक यह जीवित रहैगा ऐसा समझकर उसे छोड़ दे। यह मरण