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जीवात्मा का क्रमिक विकास
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चौदह वर्ष की उम्र में भाव शरीर के विकास के बाद विकसित होती है।
यह कामवासना जन्म के साथ ही आती है। मनुष्य का यह शरीर पाँच कोशों का बना है जिनमें यह स्थूल शरीर ही इसका “अन्नमय कोश" कहलाता है क्योंकि अन्न से ही इसका पोषण होता है। जो व्यक्ति धन के पीछे ही भटकता है उसकी धर्म से उपेक्षा हो जाती है। वह धर्म को भी पैसा कमाने के माध्यम के रूप में काम लेता है जिससे उसका आत्मिक विकास रुक जाता है।
जिसके मन में सदा धन, यश, मान, सम्मान, प्रतिष्ठा ही बनी रहती है उसकी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। वह भौतिक शरीर में ही जी रहा है । उसका आत्मा, ईश्वर से लगाव हो ही नहीं सकता। वह पाखण्ड मात्र कर सकता
हठयोग तथा अष्टांग योग, भक्ति, तंत्र ज्ञान आदि की सभी साधनाएँ इसी शरीर से होती हैं । अतः यह शरीर सबसे महत्वपूर्ण है । सभी साधनाओं का अन्त ब्रह्म प्राप्ति पर ही होता है।
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