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शत शत कीटाणु जाल पूरित,
यह जर्जर देही को पिंजड़ा । इसके विनाश में भय न करो,
___कारण तव तन है ज्ञान जड़ा ॥२॥ , अर्थ-भो आत्मन ! कृमिनिके सैंकड़ों जाल करि भरया, पर नित्य जर्जर होता देहरूप पीजरा, इसको नष्ट होते तुम भय मत करो। क्योंकि तुमतो ज्ञानशरीर हो ॥ . ___ भावार्थ-तुम्हारा रूप तो ज्ञानमई है, जिसमें यह सकल पदार्थ उद्योत रूप होरहे हैं । पर वह अमूर्तिक, ज्ञान ज्योति स्वरूप, अखंड, अविनाशी, ज्ञाता, दृष्टा है । और यह हाड़, मांस, चामड़ामई महादुर्गधविनांशीक देह है सो तुम्हारे रूपते अत्यंत भिन्न है। कर्मके वशते एक क्षेत्रमें अवगाह करि एक-से होय तिष्टे है, तोभी तुम्हारे, इनके अत्यंत भेद है । पर यह देह पृथ्वी जल, अग्नि पवनके परमाणुनिका पिंड है सो अवसर पाय सब बिखर जायेंगे । तुम अविनाशी, अखण्ड, ज्ञायकरूपहो, सो इसके नाश होनेतें भय कैसे करो हो ?
ज्ञानिन भय भवेत्कस्मात् प्राप्ते मृत्यु महोत्सवे । ‘स्वरूपस्थः पुरंयाति देहीवेहांतर स्थिति ॥३॥
3. Why fear for a right 'knower Facing the happy death festivity ? Atman that dwells in self-sphere, While finds its place in other body. ज्ञानी जनको क्यों भय होता,
पाकर यह मृत्यु महोत्सव है। आत्मा स्व-भाव में जो रमता,
. जब केवल देह बदलता है ॥३॥