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अर्थ-मृत्युके मार्गमें प्रवृत्यो जो मैं ताकू भगवान वीतराग देव समाधि कहिये स्वरूपकी सावधानी, अर बोधि कहिए रत्नत्रयका लाभ सो दीजो । और पाथेय कहिए पर लोकके मार्ग में उपकारक वस्तु सो देहू, जितनेक मैं मुक्ति पुरी प्रति जाय पहुंचू॥ ___ भावार्थ-मैं अनादि कालसे अनेक कुमरण किए जिनको सर्वज्ञ वीतराग ही जाने हैं । एकबार हू सम्यक मरण नहीं किया, जो सम्यक मरण करता तो फिर संसारमें मरणका पात्र नहीं होता । जाते जहाँ देह मरी जाय, अर आत्माका सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वभाव है सो विषयकषायनि करि नहीं घात्या जाय, सो सम्यक मरण है। पर मिथ्याश्रद्धान रूप हुवा देहका नाशको ही अपना आत्माका नाश जाणता, संक्लेशतें मरण करना, सो कुमरण है। मैं मिथ्यादर्शनका प्रभावकरि देह में ही आपा मान, अपना ज्ञान, दर्शन स्वरूपका घात करि अनंत परिवर्तन किये, सो अब भगवान वीतरागसू' ऐसी प्रार्थना करूं हूं, जो मरणके समय मेरे वेदना मरण, तथा आत्मज्ञानरहित मरण मति होऊ । क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग जन्म मरण रहित भये हैं, ताते मैं हूं वीतराग सर्वज्ञका शरण सहित, संक्लेशरहित, धर्मध्यानपूर्वक मरण चाहता, वीतराग ही का शरण ग्रहण करूं हूं ॥ । अब मैं मेरी आत्माको समझाऊं हूं ॥
कृमिजाल शताकोणे जर्जरे देह पंजरे । भुज्यमानेन भेतव्यं यतस्त्वं ज्ञान विग्रहः ।।२।।
2. With myriad germs body's cage is full Which becomes quite rotten and old. With its decay, don't be fearful, For, your body is knowledge-fold."
(२)