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कुछ महानुभावोंका यह मत भी है कि इसके रचयिता पं० सदासुखदास ही हैं। लेकिन यह बात हमारी समझमें नहीं आती । हमने अभीतकं आपकी कोई अन्य स्वतंत्र काव्यरचना नहीं देखी है । इसके अलावा सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस 'मृत्युमहोत्सव' की वचनिका के अन्त में जो संक्षिप्तप्रशस्ति दी है उसमें उक्त पंडितप्रवरने स्पष्ट लिखा है कि उन्होंने वचनिका लिखी है । यदि उन्होंने मूलरचना भी रची होती तो वे उसका अवश्यही उल्लेख करते ।
यह भी दुर्भाग्यकी बात है कि प्रस्तुत वचनिका - लेखक स्व० पं० सदासुखदासजीका जीवनवृत्त भी हमें सविस्तार ज्ञात नहीं है । वैसे आपने भगवती आराधनासार, तत्वार्थसूत्र और रत्नकरण्ड श्रावका - चारकी टीकाएँ रची हैं । श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रशस्तिसे इतना ज्ञात होता है कि आप जैनधर्म, संस्कृति एवं ज्ञानके केन्द्र जयपुर के 'निवासी थे। उस समय वहाँ राजा रामसिंह राज्य करते थे तथा आपके ही शब्दों में आपका
'गोत कासलीवाल है, नाम सदासुख जास ।
शैली तेरातंथमें, करैजु ज्ञानभ्यास ॥ इसी प्रशस्ति के अनुसार आपका जन्म सम्वत् १८५२ निकलता है ।
आपके द्वारा प्रणीत साहित्य के अवलोकनसे ज्ञात होता है कि आप साधु चरितके अध्यवसायी श्रावक थे । आप निरन्तर सम्यक्ज्ञान साधनामें निरत रहते थे। जिसके परिणामस्वरूप हमें आपकी अधिकारी daniya भी मिलती हैं ।
आपकी अन्तिमाभिलाषा थी कि— जितने भव तितने रहो जैनधर्म अमलान ।
जिनवर धर्मजु विना मम अन्य नहीं कल्याण ॥ जिनवाणीसं वीनती, मरणवेदना रोक !
आराधनके शरण तैं, देहु मुझे परलोक ॥ ( उ )