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६ शिक्षण प्रक्रिया में सर्वागपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकत
अभिभावक के साथ उस संदर्भ में नहीं घुलते-मिलते हैं, जिससे कि सुधारने और प्रगतिशील बनाने के लिए जिन प्रयासों की आवश्यकता है, उन्हें ठीक प्रकार पूरा किया जा सके। सबसे बड़ी बात है, बाल विकास के लिए मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक पक्षों की समुचित जानकारी का अभाव । अभिभावकों में इसे जानने-सीखने की न तो आवश्यकता अनुभव होती है और न अभिरुचि, इस दृष्टि से वे भी बड़ी आयु के अनजान व्यक्ति ही समझे जा सकते हैं।
वैसे अभिभावकों को उसी स्थिति में नहीं रहना चाहिए। बालकों को जन्म देने और पालने - पोसने के अतिरिक्त उनमें यह समझ भी होनी चाहिए कि जिन मेहमानों को घर में बुलाकर बिठाया गया है, उनकी सुरक्षा, सुविधा की ही नहीं, प्रगति और प्रसन्नता की बात भी सोची जाए। उन्हें उस गुण, कर्म और स्वभाव की संपदा से सुसंपन्न बनाया जाए, जो उनके व्यक्तित्व को निखार सकती हैं और भविष्य को सुधार सकती है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि अभिभावक अपने परिपूर्ण उत्तरदायित्व का तत्त्व दर्शन न तो समझते हैं और न समझने का प्रयास ही करते हैं। माताएँ प्रायः अशिक्षित या अल्पशिक्षित होती हैं। उन पर गृह-कार्यों की व्यस्तता और अस्त-व्यस्तता के कारण रुग्णता छाई रहती है। वे बालकों के लिए शरीर-सुविधा जुटाती रहें तो भी गनीमत है। उन्हें कोसने, गाली देने, पीटने की एक मात्र सुधार के नाम पर बरती जाने वाली प्रक्रिया को कम से कम बरतें तो भी उन्हें धन्यवाद दिया जा सकता है। जो बालकों को सुसंस्कारी एवं प्रगतिशील बना सकें, ऐसी माताएँ विरली ही होती हैं। शेष तो जन्म दात्री मात्र रहकर, अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेती हैं।
सरकार के लिए यही बहुत है कि वह स्कूलों के लिए इमारत, उपकरण, कार्यक्रम, वेतन, निरीक्षण, पदोन्नति, तबादले आदि की व्यवस्था बनाती है। सरकार कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हैं, जिसका क्षेत्र से सीधा संपर्क बनता हो और वह लंबी अवधि तक निरंतर बना रहता हो। यह तो शिक्षकों से ही बन पड़ता है। उन्हें शिक्षा का जीवंत प्रतिमा कहनी चाहिए। देवताओं की प्रतिमा पत्थर की,
धातु की