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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता ४६
की रूपरेखा बनाकर ऐसा तंत्र खड़ा कर सकें, जो ब्रेन वाशिंग की, लोक मानस के कायाकल्प व्यवस्था बना सके। इस आवश्यकता की पूर्ति हमें स्थानीय साधनों से ही करके, फिलहाल किसी प्रकार काम चलाना होगा।
संगीत एक बहुत अच्छा माध्यम है। विद्यार्थियों में भी उसके प्रति अभिरुचि होती है । वाद्ययंत्रों की अच्छी व्यवस्था न बन पड़े तो ढपली, मजीरा, घुँघरू का ही प्रयोग करें। एक-दो सप्ताह के अभ्यास से ही इनमें कक्षा के कई छात्रों को कुशल बनाया जा सकता है। प्रसंगों के अनुरूप कविताएँ और गीत जहाँ-तहाँ से संकलित किए जा सकते हैं। जिनके मधुर कंठ हों, उनके द्वारा ठीक तरह गा सकने की शिक्षा दी जा सकती है। इस प्रकार एक छोटी संगीत मंडली हर कक्षा में बन सकती है। कक्षा-क्रम से बनी इन मंडलियों को अलग-अलग अभ्यास प्रदर्शन करने का अवसर दिया जा सकता है। उनकी प्रतियोगिताएँ भी आयोजित की जा सकती हैं।
चित्रावलियाँ प्रकाशित कराई जा सकती हैं, जिनमें नीति पक्ष का समर्थन करने वाले प्रसंगों का चित्रण हो सकता है। बड़े चार्ट भी बनाए जा सकते हैं। सधे हुए हाथ वाले विद्यार्थियों से चार्ट बनवाकर उन्हें कक्षाओं में लगाया जा सकता है।
सस्ते स्लाइड प्रोजेक्टर भी बन सकते हैं। जहाँ बिजली हो, थोड़ा अंधेरा किया जा सकता हो, वहाँ इन छोटे स्लाइड प्रोजेक्टरों से भी आदर्शों को आँखों के सामने प्रस्तुत करने की बात बन सकती है। प्रज्ञा अभियान, शांतिकुंज हरिद्वार द्वारा इस विद्या का सफल प्रयोग हो भी रहा है। नैतिक मूल्यों को प्रोत्साहन देने वाले प्रसंगों की स्लाइडें और स्लाइड प्रोजेक्टरों की व्यवस्था भी की गई है।
छोटे-छोटे एकांक नाटकी बन सकते हैं और उन्हें बिना किसी साज-सज्जा के उपलब्ध साधनों से ही यत्किंचित सज-धज करते हुए बिना मंच के खुले में भी प्रदर्शित किया जा सकता है। उपयुक्त एकांकी खोजने पर बाजार में भी मिल सकते हैं और परिस्थितियों के अनुरूप शिक्षकगण स्वयं भी लिख सकते हैं। बात उस दिशा में उत्साह उभारने भर की है।