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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता || २७
वश्यकता
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सत् संकल्प पूरे किए जा सकते हैं
महान देशभक्त स्वर्गीय राजा महेंद्र प्रताप बहुत समय तक सोचते रहे कि देश को आजाद कराने और समुन्नत स्तर तक पहुँचाने के लिए क्या किया जाए ? क्या उपाय अपनाए जाने चाहिए ? अनेक दृष्टिकोणों से अनेक योजनाएँ बनाते रहने के उपरांत वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि महान कार्य संपन्न करने के लिए महामानव स्तर की प्रतिभाएँ चाहिए। उन्हें कहाँ पाया जाए ? उत्तर था कि ऐसे लोग बने-बनाए कहीं नहीं मिलते, न वे कहीं से आयात किए जाते हैं। पुराने समय के कुछ लोग वैसे रहे भी हों तो उनकी आयु ढल जाने पर कार्य शक्ति नहीं रहती। पुरुषार्थ तो उठती और परिपक्व आयु में ही करते बन पड़ता है। इसे नव-युवकों में ही पाया जा सकता है। वे भी कहीं विनिर्मित नहीं मिलते। अपनी आवश्यकता के अनुरूप समय की माँग को देखते हुए अपने ढंग से अपने ढाँचे में ढाले जाते हैं। इसलिए एक ऐसा विद्यालय खोला जाना चाहिए, जिसमें न केवल प्रचलित सामान्य शिक्षा दी जाए वरन् प्रतिभाएँ ढालने का काम भी साथ-साथ चले। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति इसी प्रयोजन के लिए दान कर दी और प्रेम महाविद्यालय नाम से एक विद्यालय वृंदावन में खड़ा किया गया।
इमारत को विद्यालय तो कहा जाता है, बोर्ड भी वैसा ही लगता है पढ़ाने का साज सरंजाम एवं पाठ्यक्रम भी सभी में प्रायः मिलता-जुलता ही होता है। इसकी न्यूनाधिकता से कुछ बहुत फर्क नहीं होता। असल बात है शिक्षा का स्तर, उनकी आदर्शवादिता और छात्रों को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने की लगन। डाक्टर संपूर्णानंद जो बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और राजस्थान के राज्यपाल बने, उसी विद्यालय में अध्यापक थे। इसी स्तर के आचार्य जुगलकिशोर जी बाद में उत्तर प्रदेश सरकार में शिक्षा मंत्री बने। प्रो० कृष्ण चंद्र जो लंबे समय तक केंद्रीय पार्लियामेंट के सदस्य रहे,