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शिक्षण प्राप्रपा
शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता || १७ | उसमें उलझाए रखा जाए ? उस समय को बचाकर उसे घरेलू व्यवसायों में क्यों न लगाया जाए, ताकि वह अनुभव प्राप्त करने के साथ-साथ काम में हाथ भी बँटाने लगे। इससे पढ़ाई का खर्च भी बचता है और आमदनी में भी कुछ न कुछ अभिवृद्धि होती है। इस कारण अनेक छात्र अभिभावकों के इस परामर्श में सार देखते हैं और पढ़ाई की चिहपूजा छोड़कर काम-धाम संभालने लगते हैं।
विचारणीय है कि शिक्षा के प्रति ऐसी उपेक्षा और बगावत क्यों पनप रही है ? अभी उसका विस्फोट नहीं हुआ है, पर यह सहज ही जाना जा सकता है कि माहौल किस प्रकार का बन रहा है ? असंतोष की स्थिति लंबे समय तक नहीं बनी रह सकती, उसका विकल्प उभरता है। शिक्षा का स्तर गिरने से छात्रों और अध्यापकों के बीच की खाई चौड़ी होती जाती है। इस कारण उभरा आक्रोश कई बार इस हद तक पहुँच जाता है कि शिक्षकों और शिक्षार्थियों के बीच विग्रह खड़ा हो जाता है। उससे अशोभनीय और अवांछनीय घटनाएँ घटित होती हैं। असंतोष अभिभावकों में भी रहता है, इसलिए वे उपद्रवी बच्चों को डाँटने की अपेक्षा उन्हीं का पक्ष लेने लगते हैं। पाठ्यक्रम उथले मन से पढ़ाया जाता और सुसंस्कारिता के लिए कारगर प्रयास नहीं किए जाते, इन दो शिकायतों को अभिभावक प्रायः दुहराते रहते हैं और अपने असंतोष की अभिव्यक्ति समय-समय पर करते रहते हैं।
शिक्षा का उद्देश्य पढ़ाई पूरी करा देना मात्र दीख पड़ता है। अन्य कोई विशेषता वहाँ से हस्तगत न होने पर प्रत्यक्षदर्शी इस प्रकार सोच भी सकता है। इसका दोष किसे दिया जाए ? शिक्षातंत्र तो अप्रत्यक्ष है। प्रत्यक्षतः तो उसके संचालक, संबद्ध अध्यापक ही दिखते हैं। इसलिए दोष या तंत्र की कमी भी, उसे प्रत्यक्ष स्वरूप देने वाले अध्यापक में ही दीखती है। असंतोष का कारण कुछ भी हो, पर प्रत्यक्षवादी उस कमी को अध्यापकों की उपेक्षा या अयोग्यता ही मानते हैं। ऐसी लोकमान्यता के कारण छात्रों की, अभिभावकों की गहरी श्रद्धा अध्यापकों को मिलती नहीं। उन्हें गुरु-गरिमा का प्रतिनिधि मानने का भाव जागता नहीं। स्वाभाविक है कि ऐसी दशा में