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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता
अध्यापक अपने आदर्श से मार्गदर्शन दें
स्कूली शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को प्रस्तुत परिस्थितियों संदर्भ एवं प्रसंगों की समुचित जानकारी देना है; इस दृष्टि से भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास, विज्ञान आदि विषयों की जानकारी का पाठ्य-पुस्तकों में समावेश है। यह सभी विषय नवोदित छात्रों को अधिक जानकारी और वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए समाविष्ट किए गए हैं। इस जानकारी की उपयोगिता, आवश्यकता कम नहीं है। इसी कारण शिक्षा का वर्तमान ढाँचा खड़ा किया गया है। उसी प्रयोजन के लिए स्कूल, कॉलेज खुले हैं, अध्यापक नियुक्त किए गए हैं, परीक्षाएँ होती हैं और उत्तीर्णों को प्रमाण पत्र व पुरस्कार आदि मिलते हैं। इसी आधार पर उनके ज्ञान विस्तार का मूल्यांकन किया जाता है और उसी के अनुरूप उपयुक्त पदों पर उनकी नियुक्ति भी होती है. अथवा, व्यवसाय आदि में अपनी जानकारियों के आधार पर अधिक कुशल सिद्ध होते एवं सफल बनते हैं। इस प्रकार प्रचलित शिक्षण-प्रक्रिया को भी उपयोगी एवं आवश्यक समझते हुए सराहा जा सकता है। उसकी अवमानना करने जैसा तो कोई कारण ही नहीं है।
अभी जो है, उसकी प्रशंसा करते हए भी जो कमी है, उसकी ओर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यदि वह कभी अखरे तो उसे दूर करने का प्रयास भी करना चाहिए। चिंतन की उत्कृष्टता, चरित्र की प्रामाणिकता और न्यायोचित परस्पर सहकार की प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं, जिन्हें शिक्षण काल में ही छात्रों में अंकुरित और पल्लवित किया जाना चाहिए, क्योंकि गुण, कर्म, स्वभाव में सत्प्रवृत्तियों का समावेश हुए बिना व्यक्तित्व उस स्तर तक नहीं उभरता, जिससे आत्मसंतोष मिल सके, प्रतिभा उभर सके और प्रामाणिकता के आधार पर जन साधारण का सम्मान एवं सहयोग अर्जित करना संभव हो सके।
इस आवश्यकता की पूर्ति शिक्षण के साथ-साथ ही होती चले, यह आशा की जानी उपयुक्त ही है क्योंकि हरी लकड़ी-मोड़ी जा