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है, जिसके साथ प्रात्मा में मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता जाय।
ज्ञानार्जन अथवा ज्ञानाभ्यास अपने पाण्डित्य के प्रदर्शन के लिए नहीं करना है, किन्तु जगत् के यथार्थ स्वरूप का दर्शन कर यथार्थ जीवन जीने के लिए करना है।
तीव्र मोहोदय से युक्त होने के कारण अभव्य की आत्मा ६. पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर लेती है....फिर भी उस आत्मा का उद्धार नहीं हो पाता है, क्योंकि वह ज्ञान आत्मस्पर्शी नहीं है । ज्ञान जिह्वास्पर्शी नहीं आत्मस्पर्शी हृदयस्पर्शी होना चाहिये ।
___ 'वैराग्य शतक' ग्रन्थ का ज्यों-ज्यों अवगाहन करते जानोगे, त्यों-त्यों तुम्हें आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती जाएगी।
'वैराग्य शतक' की दूसरी गाथा हैअज्ज कल्लं परं परारि, पुरिसा चितंति अत्थसंपत्ति । अंजलिगयं व तोय, गलतमाउं न पिच्छंति ॥ २॥
अर्थ-पाज मिलेगा कल मिलेगा परसों मिलेगा। इस प्रकार अर्थ/धन की प्राप्ति की आशा में रहा मनुष्य अंजलि में रहे हुए जल की भाँति क्षीण होते आयुष्य को नहीं देखता है ।
धन की प्राशा का गुलाम बना व्यक्ति प्राशा के जाल में रमता रहता है। आज मिलेगा कल मिलेगा। इस प्रकार आशा की डोर से बँधा हुआ व्यक्ति प्रयत्न पुरुषार्थ करता ही रहता है, परन्तु उसे कुछ भी हाथ नहीं लगता है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-'जो प्राशा का गुलाम है, वह विश्व का
मृत्यु की मंगल यात्रा-73