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बस, इसी प्रकार इन्द्रियजन्य सुख वास्तविक सुख नहीं है किन्तु सुखाभास ही है। . इस संसार में वीतराग-जिनेश्वर परमात्मा हमें सच्चे सुख की राह दिखाते हैं, उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग/धर्म हमें शाश्वत अजरामर पद प्रदान करने में समर्थ है, परन्तु अफसोस ! अज्ञान व मोह के नशे के कारण जीवात्मा को उस सत्य-धर्म के प्रति प्रेम ही पैदा नहीं होता है।
जिनेश्वर का मार्ग आत्मा को जिन/वीतराग बनाता है। जिनेश्वर का मार्ग आत्मा को पूर्ण बनाता है।
परन्तु मोह की मदिरा का पान करने वाली आत्मा को जिनेश्वर का त्यागमार्ग कहाँ से रुचे ?
उसे तो आनन्द आता है स्त्रियों के भोग-सुखों में। उसे तो आनन्द प्राता है रेडियो, टी. वी. व केसेट के मधुर संगीत में। उसे तो आनन्द आता है रसनेन्द्रिय को प्रिय मधुर भोजन में। ___ यही तो मोह की मदिरा का फल है। मोह बुद्धि में विपर्यास पैदा करता है, जिसके फलस्वरूप प्रात्मा क्षणिक-तुच्छ सुखों में आसक्त बनकर अपना संसार बढ़ा लेती है।
प्रिय दीपक ! कितना भयंकर है यह संसार ! कितने भयंकर हैं संसार के तुच्छ सुख !
मृत्यु की मंगल यात्रा-70