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निदिध्यासन किया जाय तो सचमुच ही जीवन में वैराग्य की ज्योति प्रज्वलित हो सकती है।
'वैराग्य शतक' ग्रन्थ की आद्य गाथा हैसंसारम्मि असारे , नथि सुहं वाहि वेपणा पउरे । जाणंतो इह जीवो, न कुरणइ जिरणदेसियं धम्मं ॥
'व्याधि-वेदना से प्रचुर इस प्रसार-संसार में लेश भी सुख नहीं है.""यह जानते हुए भी जीवात्मा जिनेश्वर भगवन्त द्वारा निदिष्ट धर्म का आचरण नहीं करता है।'
ग्रन्थकार महर्षि कहते हैं कि यह समस्त संसार नानाविध दुःखों से भरा हुआ है। संसार में जन्म की पीड़ा है, जरा अवस्था को पीड़ा है, रोग-शोक की पीड़ा है और मरण की पीड़ा है । जब तक आत्मा कर्म-बन्धन से सर्वथा मुक्त नहीं बनती है, तब तक आत्मा को इस संसार में जन्म धारण करना ही पड़ता है। जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है।
जिसका जन्म है उसका मरण अनिवार्य है। परन्तु हर मरण के बाद जन्म जरूरी नहीं है। आत्म-साधना के बल से जो आत्माएँ कर्मबन्धन से मुक्त हो जाती हैं, उन आत्माओं की अन्तिम मृत्यु होती है परन्तु उन्हें पुनः जन्म धारण नहीं करना पड़ता है।
कर्मबन्धन से मुक्त बनी आत्माएँ मृत्यु पर विजय पा लेती हैं, वे सदा के लिए अजर-अमर बन जाती हैं। जीवन की शाश्वतता के साथ-साथ वे अव्याबाध सुख के सागर में सदा काल लीन बन जातो हैं और केवलज्ञान रूपो चक्षु के द्वारा परिवर्तन
मृत्यु-5
मृत्यु की मंगल यात्रा-65