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४. अतः इस घटना में स्वकृत कर्म का फल मानकर इस दुःख को स्वीकार करना चाहिये ।
जीवन में जो कुछ भी सुख-दुःख पाता है-वह सब कुछ अपने ही कर्मों का फल है।
'दुःख' का यह स्वभाव है कि वह आमंत्रण बिना अपने पास नहीं आता है। दुष्कर्म के आचरण द्वारा हम दुःख को आमंत्रण देते हैं और उस आमंत्रण के बाद ही 'दुःख' आता है।
हमने अपने पूर्व भवों में दुष्कर्मों के आचरण द्वारा दुःख को आमंत्रण दिया है और इसी के फलस्वरूप जीवन में दुःख प्राया है।
आमन्त्रित मेहमान का स्वागत करना हमारा कर्तव्य है।
दुःख भी हमारा आमंत्रित मेहमान है, अतः उसके आगमन पर उसका स्वागत करना चाहिये ।
शुभ कर्म के फलस्वरूप जो सुख आता है, उस सुख का तो हम हार्दिक स्वागत कर लेते हैं और जो दुःख आता है, उनके आगे No admission without permission का बोर्ड ल्गा देते हैं।
___'मेरी ही भूल की मुझे सजा हुई है' इस प्रकार की सम्यग् श्रद्धा से दुःखानुभूति में अन्तर पड़ जाता है।
'पानी ही भूल/असावधानी के कारण किसी पत्थर से ठोकर लग जाय तब हम किसको डाँटते हैं ?'
मृत्यु की मंगल यात्रा-56