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________________ पूर्वाचार्य महर्षि कहते हैं कि उससे भी अनेक गुणी पीड़ा 'मृत्यु' के समय होती है। ...तो फिर ऐसी भयंकर पीड़ा में चित्त की समाधि कैसे रह सकती है। यह प्रश्न विचारणीय है। इस प्रश्न का विस्तृत जवाब देने के साथ ही 'समरादित्यचरित्र' के दूसरे भव का चरित्र मेरे समक्ष प्रा खड़ा होता है। अत्यन्त ही करुण और हृदय-द्रावक चित्र है। • आनन्द कुमार ने अपने पिता 'सिंह' राजा को भयंकर कारावास में डाल दिया है। कारावास का वातावरण अत्यन्त ही विषम है, चारों ओर से भयंकर दुर्गंध आ रही है। कोने में गन्दगी के ढेर पड़े हैं। परन्तु सिंह राजा के मुख पर प्रसन्नता छाई हुई है, उनके हृदय में एकमात्र इस बात का दुःख है कि वे समय रहते चारित्र स्वीकार नहीं कर पाए । 'अब क्या हो ?' भाव से चारित्र स्वीकार कर उन्होंने चारों प्रकार के प्राहार का त्याग कर अनशन कर दिया। वे आत्म-समाधि/प्रात्म-ध्यान में लीन बन गए। थोड़ी ही देर बाद भोजन का समय होने पर आनन्दकुमार ने अपने नौकर के द्वारा सिंह राजा के लिए भोजन का थाल भेजा। परन्तु प्रणाहारी पद के उपासक सिंह महात्मा ने प्राहार-ग्रहण करने से मना कर दिया। उस नौकर ने जाकर आनन्दकुमार को यह बात कही। यह बात सुनते ही आनन्दकुमार रोष से धमाधम उठा और बड़बड़ाने लगा, 'मेरो आज्ञा को भंग करने की ताकत ? अभी उसे खत्म कर दूंगा।' मृत्यु की मंगल यात्रा-35
SR No.032173
Book TitleMrutyu Ki Mangal Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1988
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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