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मुमुक्षु 'दीपक' !
इस संसार में हमारा अस्तित्व कमल के पत्ते पर पड़े प्रोसबिंदुओं की तरह अस्थिर/प्रशाश्वत है। जल-तरंगों की भाँति आयुष्य अत्यन्त ही चपल चंचल है।
महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी म. ने 'ज्ञानसार' में कहा है-'प्रायुर्वायुवदस्थिरम् ।
आयुष्य वायु की तरह अस्थिर है। जिस प्रकार वायु कहीं भी स्थिर नहीं रहता है उसी प्रकार अपना आयुष्य भी उतना ही चंचल है । किस समय जीवन का यह दीप बुझ जाएगा, उसका कोई पता नहीं है।
पवन के प्रवाह के बीच हमारा जीवन-दीप खड़ा है। किस समय पवन का झोंका/झपाटा आएगा और यह जीवन-दीप बुझ जाएगा, कुछ नहीं कह सकते हैं। किसी शायर ने ठीक ही कहा है
न गाती है, न गुनगुनाती है।
मौत जब आती है, चुपके से चली आती है। भौतिक जगत् में आश्चर्यकारी शोध करने वाले और प्रगति के शिखर पर आरूढ़ आज के विज्ञान के सामने सबसे बड़ी समस्या 'मृत्यु' की है । प्रारोग्य और तबीबी विज्ञान के क्षेत्र में विज्ञान ने आश्चर्यजनक प्रगति की है। अनेक रोगों के निदान और उपचारों की शोध विज्ञान ने की है परन्तु आज तक कोई वैज्ञानिक किसी भी व्यक्ति को 'मृत्यु' के रोग से नहीं बचा पाया है ।
मृत्यु की मंगल यात्रा-20