SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतिपवित्र आत्मा की निपुणता का विचार/चिन्तन कर । आत्मा का मौलिक स्वरूप शुद्ध, निरंजन, निराकार और निष्कलंक है। आत्मा शंख की तरह निरंजन और आकाश की तरह निर्लेप है। जिस प्रकार आकाश को किसी प्रकार का दाग नहीं लगता है, उसी प्रकार प्रात्मा पर भी किसी प्रकार का दाग नहीं लगता है। मूलभूत आत्म-द्रव्य स्फटिक रत्न से भी अधिक निर्मल और विशुद्ध है। __आत्मा के मौलिक स्वरूप के चिन्तन से चित्त प्रसन्न और निर्मल बनता है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप के चिन्तन से प्रात्मा निर्भय बनती है। मुमुक्षु दीपक ! जैन-दर्शन में 'मृत्यु' का विचार एक मात्र वैराग्य-पुष्टि और आत्म-जागृति के लिए ही है। सामान्यतः दुनिया में सात भय प्रसिद्ध हैं इहलोक-भय--मनुष्य को मनुष्य से भय इत्यादि । परलोक-भय-मनुष्य को तिर्यंच तथा देव से भय । आदान-भय-चोरी, लूट आदि का भय । प्राजोविका-भय-धनार्जन कैसे हो? इसका भय । अकस्मात्-भय-रेल, मोटर आदि की दुर्घटना का भय । अपयश-भय-लोक में मेरी अपकीति तो नहीं होगी न ? इसका भय। मृत्यु की मंगल यात्रा-13
SR No.032173
Book TitleMrutyu Ki Mangal Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1988
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy