SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंत में महोपाध्यायजी म. फरमाते हैंभज जिनपतिमसहायसहायम्, शिवगति-सुगमोपायम् । शिवगति/मोक्ष की प्राप्ति में सुगम सरल उपाय रूप असहाय को सहायता करने वाले जिनेश्वर भगवन्त को तुम भजो। इस संसार में जिसका कोई बेली/साथी नहीं है उसको पूर्ण सहयोग देने वाले पूर्ण बनाने वाले जिनेश्वर भगवन्त हैं। जिनेश्वर भगवन्त की शरणागत बनी आत्मा ही पूर्णता को प्राप्त करती है। छठी अशुचि-भावना में महोपाध्यायजी म. विस्तार से शरीर की अशुचिता/अपवित्रता का वर्णन करते हैं। .."इस शरीर को बारंबार नहलाए""चन्दन से इसका बारंबार लेप करे, फिर भी यह देह अपनी स्वाभाविक मलिनता का त्याग करने वाला नहीं है। कर्पूर के ढेर के बीच लहसुन को रखा जाय तो भी क्या लहसुन सुगंधित बन सकता है ? इसी प्रकार इस देह को कितना ही विभूषित किया जाय फिर भी यह देह अपने मौलिक स्वभाव का त्याग करने वाला नहीं है। इस देह से मल का प्रवाह सतत बह रहा है। देह की अपवित्रता का सविस्तृत वर्णन करने के बाद महोपाध्यायजी म. आत्मा की पवित्रता का वर्णन करते हुए फरमाते हैं "अतिपुण्यम्, तच्चितय चेतननैपुण्यम्"। मृत्यु की मंगल यात्रा-12
SR No.032173
Book TitleMrutyu Ki Mangal Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1988
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy