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वह तो अवश्यम्भाविनी घटना है। उसे न रोका जा सकता है, न टाला जा सकता है। जन्म के साथ ही मृत्यु का सीधा सम्बन्ध है । जिसने जन्म को स्वीकार किया, उसे मृत्यु को 'स्वीकार' करना ही चाहिये । जन्म के बाद मृत्यु को अस्वीकार करना प्रकृति के सनातन-सत्य का ही विरोध है। भगवान महावीर ने मृत्यु को नहीं, जन्म को ही भयंकर कहा है। 'जन्म' का बन्धन टूटेगा तो मृत्यु का बन्धन स्वतः टूट जाएगा। जब तक 'जन्म' की शृंखला चलेगी, तब तक 'मृत्यु' की परम्परा चलने ही वाली है।
प्रतः
मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए 'अजन्मा' बनने की साधना जरूरी है। अनन्त-अनन्त जन्मों से मृत्यु की शृंखला आत्मा से जुड़ी हुई है । हर जन्म के बाद मृत्यु की पीड़ा का हमने अहसास किया है। फिर भी आश्चर्य है कि, मृत्यु हमारे लिए नित नई वस्तु बनी है, उसके भूतकालीन संवेदनों को हम
मृत्यु की मंगल यात्रा-2