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करता है, परन्तु मृत्यु रूपी केंची उन समस्त सम्बन्धों को क्षरण भर में काट देती है और उनके कट जाने पर व्यक्ति का वस्तु पर रहा हुआ स्वामित्व भी नष्ट हो जाता है ।
सतत साथ में रही मृत्यु को भी 'जिनधर्म' रूपी हथियार द्वारा नष्ट किया जा सकता है ।
'शांत सुधारस' में जिनधर्म से प्रार्थना करते हुए कहा गया है
पालय पालय रे, पालय मां जिनधर्म !
शिवसुखसाधन, भवभयबाधन, जगदाधारगम्भीर ! पालय०
'हे जिनधर्म ! मेरा पालन करो, पालन करो। तुम ही शिवसुख का साधन हो, भव के भय से मुक्त कराने वाले हो, जगत् का आधार हो और गम्भीर हो ।'
जिनधर्म की शक्ति अनन्त है । उसको जीवन में आत्मसात् करने वाला स्वयं अनन्त शक्ति का पुंज बन जाता है । आत्मा में रही सुषुप्त अनन्त शक्ति को जागृत करने के लिए जिनधर्म ही परम आलम्बन है ।
मुमुक्षु 'दीपक' !
'अपना सद्भाग्य है कि हमें ऐसे महान् जिनधर्म की प्राप्ति सहजता से / सरलता से हो गई है. अब तो उसके प्रति जीवन समर्पित करने में ही जीवन की सफलता है । परमात्मकृपा से ऐसी सफलता तुम्हें भी मिले, यही शुभाभिलाषा है ।
- रत्नसेन विजय
मृत्यु की मंगल यात्रा - 128