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________________ जिस देश के नररत्नों ने अहिंसामाता की रक्षा के लिए अपने जीवन का भी बलिदान दे दिया था, आज उसी अहिंसामाता का खुलेग्राम चीर (वस्त्र) खींचा जा रहा है । भूतकाल में अनेक शासक हुए परन्तु उन्होंने कभी प्रजा को मांसाहारी बनाने के लिए राजकीय स्तर पर कत्लखाने नहीं खुलवाये थे परन्तु अफसोस है कि आज अपनी ही सरकार, 'अहिंसा' का गाना गाने वाली सरकार, खुलेआम हिंसा को प्रोत्साहन दे रही है । मूक व निरपराध पशुओं को मानों जीने का कोई अधिकार ही नहीं है, इस प्रकार सरकार स्वयं उन मूक पशुओं के कतल के लिए प्रोत्साहन दे रही है । यह कितने अफसोस की बात है। मुमुक्षु 'दीपक' ! कल ही तुम्हारा पत्र मिला । तुम्हारे दिल में संसार के प्रति नीरसता का भाव दिन-प्रतिदिन दृढ़ बनता जा रहा है, जानकर मुझे अत्यन्त ही प्रसन्नता हुई। दूसरे प्राणी की हिंसा कर, दूसरे प्राणी को भयभीत कर अभय/निर्भय रहने की इच्छा, विष का भक्षण कर जीवित रहने की इच्छा के समान ही है । जो दूसरे प्राणी की हिंसा करता है, उसे स्वयं मरना पड़ता है । जो दूसरे प्राणी को भयभीत करता है, वह स्वयं भयभीत रहता है। दूसरे प्राणी के जीवन में होली सुलगाने वाला अपने जीवन में दीवाली कैसे मना सकता है। यदि जीवन चाहते हो तो दूसरे प्राणी को जीवन दो। हिंसा का परिणाम अति भयंकर है । हिंसाजन्य पाप का मृत्यु की मंगल यात्रा-117
SR No.032173
Book TitleMrutyu Ki Mangal Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1988
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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