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यह काया नश्वर तेरी है,
एक दिन वह राख की ढेरी है । जहाँ मोह का खूब अंधेरा है,
क्यों मानत मेरा-मेरा है ।। ३ ।।
बुरी यह दुनियादारी है,
दुःख जन्म-मरण की क्यारी है । दुःखदायक भव का फेरा है,
क्यों मानत मेरा-मेरा है ॥ ४ ॥
गति चार की नदियाँ जारी हैं,
भवसागर बड़ा ही भारी है । ममता वश जहाँ बसेरा है,
क्यों मानत मेरा-मेरा है ।। ५ ।।
मन आत्मकमल में जोड़ लियो,
गुण मस्तक
लब्धि माया को छोड़ दियो । संजम शेरा है,
क्यों मानत मेरा - मेरा है ।। ६ ।।
प्रिय 'दीपक' !
ज्यादा क्या लिखूँ ? तुम स्वयं समझदार हो । वैराग्य की भावना से अपनी आत्मा को भावित कर अनादि की मोह- नींद का त्याग कर आत्म-कल्याण के पथ पर आगे बढ़ो। इसी शुभेच्छा
के साथ
मृत्यु की मंगल यात्रा - 108
- रत्नसेन विजय