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________________ हर एक को उस परम धाम कृष्ण लोक में जाने का प्रयास करना चाहिए। भगवान् स्वयं वापिस बुलाने आते हैं, निर्देशन के लिए पुस्तकें . देते हैं और अपने प्रतिनिधियों को भेजते हैं। हमें मनुष्य जीवन में इसी दी हुई सुविधा का उपयोग करना चाहिए। जो इस परम निवास स्थान में पहुँच जाता है तो फिर तपस्या, ब्रह्मचर्य, योग इत्यादि विधियों की आवश्यकता नहीं रहती है और जो वहाँ नहीं पहुँच पाते हैं उनका सभी तपस्यायें और ब्रह्मचर्य में व्यर्थ समय नष्ट करना है। मनुष्य योनि में ही इस लाभ को लेने का सुअवसर है और इस राष्ट्र के मातापिता, गुरु, रक्षक का कर्तव्य है कि जिन्होंने मनुष्य योनि पा ली है उन्हें जीवन की इस पूर्णता में प्रगति करायें। केवल खाना, सोना, मैथुन करना और कुत्ते बिल्ली की भाँति लड़ना ही सभ्यता नहीं है। हमें इस मनुष्य योनि के जीवन का सदुपयोग करना चाहिए और इस ज्ञान का लाभ उठाकर दिन में चौबीस घण्टे कृष्ण भगवान् के स्मरण में लगा कर कृष्ण भावना में व्यस्त रहना चाहिए और मृत्यु के समय तुरन्त वैकुण्ठ जाना चाहिए। पूरषः स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ।। (भ.गी. ८:२२) “भगवान् परम् पुरुष, जो सबसे महान् हैं, केवल अनन्य भक्ति से ही पाये जा सकते हैं। यद्यपि वे अपने निवास स्थान में हैं फिर भी वे सब जगह उपस्थित हैं और हर चीज उनमें हैं। यदि हम सब परम निवास स्थान जाने के इचछुक हैं तो विधि यहाँ दी गई है-वह भक्ति है। भक्ति के माने हैं भगवान् की नम्रता के साथ सेवा करना। भक्ति की धातु 'भज्' शब्द में है जिसके माने सेवा करना है। भक्ति की परिभाषा नारद पञ्चरात्र में दी गई है “सभी उपाधियों से मुक्ति।" यदि कोई सभी उपाधियों जो कि पवित्र आत्मा को मोह में रखती है, जो कि शरीर से उत्पन्न होती है और शरीर के
SR No.032172
Book TitleJanma Aur Mrutyu Se Pare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA C Bhaktivedant
PublisherBhaktivedant Book Trust
Publication Year1977
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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