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शरीर के होने के कारण हमारे इन उद्देश्यों की गति रुक रही है। इसलिए हमें शरीर से परे आत्मा के स्तर पर पहँचना है। किताबी ज्ञान कि हम यह शरीर नहीं हैं, कार्य नहीं करेगा। हमें अपने आपको शरीर से अलग,उसके स्वामी के रूप में रखना होगा उसके नौकर के रूप में नहीं। यदि हम भली भाँति जानते हैं कि 'कार' केसे चलायें तो वह हमें आच्छी सेवा देगी और यदि हम नहीं जानते तो हम भयजनक स्थिति में पहुँच जायेंगे।
शरीर इन्द्रियों का बना है और इन्द्रियाँ सदैव अपने विषयों की भूखी हैं। जब आँख सुन्दर व्यक्ति को देखती है तो वह हमसे कहती है,"ओ वहाँ सुन्दर लडकी है, सुन्दर लड़का है, वहाँ चलो।" कान हमसे कहते हैं,"ओ,वहाँ बहुत अच्छा संगीत है, सुनने चलो।" जीभ कहती है,"ओ, वहाँ स्वादिष्ट भोजन का अच्छा भोजनालय है, वहाँ चलो।''इस प्रकार इन्द्रियाँ हमें एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर घसीट रही हैं और इसके कारण हम परेशान हैं।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञा वायुनविर्मिवाम्भसि।। .
- भ.गी.२:६७।। - "जैसे पानी में नाव तीव्र वाय के कारण बह जाती है,वैसे ही कोई एक इन्द्रिय जिस पर मन स्थिर होता है, वह मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।"
यह सीखना अनिवार्य है कि हम अपनी इन्द्रियों को किस प्रकार संयम करें। गोस्वामी उपाधि उसे दी जाती है जिसने यह सीख लिया है कि इन्द्रियों के स्वामी कैसे बनें। 'गो' के माने है इन्द्रियाँ और 'स्वामी' के माने है वश में करने वाला, इसलिए जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है वही गोस्वामी माना जाता है। कृष्ण भगवान् कहते हैं कि जो अपनी पहचान भ्रामक भौतिक शरीर से रखता है वह अपने स्वरूप