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___ 'वु' परन्तु (स्वप्न) 'मायामात्रम् केवल माया यानि भ्रांति है, क्योंकि 'कात्स्न्र्येन' उसकी सम्पूर्ण रूप से 'अनभिव्यक्त स्वरूपत्वात् अभिव्यक्ति नहीं होती।
'वु' (परन्तु) शब्द पक्षान्तर को सूचन करता है । जो पूर्वपक्ष में कहा था कि संधि में यानी स्वप्न में सृष्टि परमार्थिक है । स्वप्न में भी सृष्टि मिथ्या ही है, वहां परमार्थ का गंध भी नहीं है क्योंकि पदार्थ के स्वरूप की वहां पूर्ण रूप से अभिव्यक्ति नहीं होती। यहां पर संपूर्ण कहने से अभिप्राण (पदार्थों) के देश, काल और निमित्त की प्राप्ति तथा उसके बाध का अभाव स्वप्न में संभव नहीं है। प्रथम नतोस्वप्न में रथादि के लिए देश ही संभव है और न छोटे से देह में रथादि को अवकाश मिलना ही संभव है।
यदि कोई कहे कि स्वप्न में जीव देह के बाहर देखता है, (ऐसा मानना चाहिए) क्योंकि अन्य देश में हो रही वस्तुओं का भी स्वप्न में ग्रहण होता है। श्रुति भी देह के बाहर स्वप्न होता है, ऐसा प्रतिपादन करती है; जैसे बहिण्कुक्तायादमृततश्चरित्वा स ईयतेऽमृतो यत्र कामम् (बृ० ४/३/९२) अमृतरूप आत्मा देह के बाहर घूम फिर कर वह अमृत रूप चाहे जहां जाता है। यहां पर यदि जीव देह के बाहर नहीं निकलेगा, तो उसकी भिन्न स्थिति, भिन्न स्थान के प्रति गमन और भिन्न प्रकार का अनुभव, यह सब युक्त नहीं होंगे।
इस पर उत्तर देते हैं कि यह ठीक नहीं है । क्षण भर में ही सैंकड़ों योजन दूर देश में जाना तथा लौट आना यह सामर्थ्य सोए हुए प्राणी में होना संभव नहीं है। जैसे ही, कभी तो ऐसा स्वप्न होता है, जिसमें कि लौटने का भाव ही नहीं होता। जैसे कोई अपना स्वप्न सुनाते है कि 'मैं अभी कुरुदेश में सोया था। सोने पर स्वप्न में मैं पांचाल देश गया और वहां जाने पर जाग गया' यदि देह से निकलकर पांचाल देश में गया होता तो वह वहां गया ऐसा मानते हुए भी फिर कुरु देश