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प्रस्तावना
चिन्तन में तत्पर होता है। वहां अनित्यादि भावनाओं की संख्या का कोई निर्देश नहीं किया गया। टीकाकार हरिभद्र सूरि ने उसको स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि 'अनित्यादि' में जो आदि शब्द है उससे अशरण, एकत्व और संसार भावनाओं को ग्रहण किया गया है। साथ ही आगे उन्होंने यह भी निर्देश किया है कि मुनि को 'इष्टजनसम्प्रयोगद्धिविषयसुखसम्पदः' इत्यादि ग्रन्थ के प्राश्रय से बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करना चाहिए।
स्थानांग में चतुर्थ स्थान का प्रकरण होने से सम्भवतः वहां चार ही अनुप्रेक्षाओं की विवक्षा रही है। पर ध्यानशतक में ऐसा कुछ नहीं रहा। इससे वहां उनकी संख्या का निर्देश न करने पर भी 'अनित्यादि' पद से तत्त्वार्थसूत्र एवं प्रशमरतिप्रकरण आदि में निर्दिष्ट बारहों अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन का अभिप्राय रहा दिखता है। सम्भवतः यही कारण है जो ध्यानशतककार ने 'अणिच्चाइभावणापरमो' ऐसा कहा है । यदि उन्हें पूर्वोक्त चार अनुप्रेक्षाओं का ही ग्रहण अभीष्ट होता तो वे 'अनित्यादि' के साथ 'चार' संख्या का भी निर्देश कर सकते थे। पर वैसा यहां नहीं किया गया। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र (९-७)
और प्रशमरतिप्रकरण आदि ग्रन्थों में सर्वप्रथम अनित्यानुप्रेक्षा उपलब्ध होती है। पर स्थानांग में निर्दिष्ट उन चार अनुप्रेक्षाओं में प्रथमतः एकानुप्रेक्षा का निर्देश किया गया है। अतः तदनुसार यहां अनित्यादि के स्थान में 'एकत्वादि' ऐसा निर्देश करना कहीं उचित था। ४ शुक्लध्यान
स्थानांग में शुक्लध्यान के ये चार भेद निर्दिष्ट किए गये हैं-पृथक्त्ववितर्क सविचारी, एकत्ववितकं अविचारी, सूक्ष्मक्रिय-अनिवर्ती और समुछिन्नक्रिय-अप्रतिपाती।
ध्यानशतक में शुक्लध्यान के इन चार भेदों की सूचना उनके विषय का निरूपण करते हए ध्यातव्य प्रकरण में की गई है।
स्थानांग में शुक्लध्यान के जिन चार लक्षणों का निर्देश किया गया है। उनको ध्यानशतककारने उसी रूप में ग्रहण कर लिया है। विशेषता यह है कि यहां दो गाथाओं के द्वारा उनके स्वरूप को भी स्पष्ट कर दिया गया है।
स्थानांग में शुक्लध्यान के जिन चार आलम्बनों का निर्देश किया गया है। उन्हीं का संग्रह ध्यानशतक में भी कर लिया गया हैं।
१. ध्या. श. ६५. २. हरिभद्र सूरि ने इस प्रारम्भिक वाक्य के द्वारा प्रशमरतिप्रकरण नामक ग्रन्थ की ओर संकेत किया है । वहां 'इष्टजनसम्प्रयोगद्धिगुणसम्पदः' इत्यादि १२ श्लोकों में बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया गया है। उन सब श्लोकों को यहां प्रकृत वाक्यांश के आगे प्रशमरतिप्रकरण से चौकोण []
कोष्ठक में ले लिया है। ३. जैसे कि शुक्लध्यान के प्रसंग में "णिययमणुप्पेहाम्रो चत्तारि चरित्तसंपण्णो' वाक्य के द्वारा चार संख्या __का निर्देश किया गया है। ध्या. श. ८७. ४. सुक्के झाणे चउविहे चउप्पडोमारे पं० तं०-पूहुत्तवितक्के सवियारी १, एकत्तवितक्के अवियारी
२, सहमकिरिते अणियट्री ३, समुच्छिन्नकिरिये अप्पडिवाती ४ । स्थानां. पू. १८८. ५. पृथक्त्ववितर्क-सविचारी ७७-७८, एकत्ववितर्क-अविचारी ७६-८०, सूक्ष्मक्रिय-अनिवर्ती ८१,
व्युच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाती ८२. ६. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं०२०-अव्वहे असम्मोहे विवेगे विउस्सग्गे । स्थानां.प्र.१९८. ७. ध्या. श. ६०. ८. ध्या. श. ६१-६२. ६. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि प्रालंबणा पं० तं०-खंती मुत्ती मद्दवे अज्जवे । स्थानां पृ. १८८. १०. ध्या. श. ६६.