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ध्यानशतक
यह सभी शुक्लध्यानविषयक विवेचन ध्यानशतक में यथास्थान किया गया है। उससे सम्बन्धित तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र और ध्यानशतक की गाथायें इस प्रकार हैं
त. सू.-६, ३७-३८, ६-४०६,४१-४४. ध्या. श.-६४; ८३, ७७-८०.
ध्यानशतक और स्थानांग प्राचारादि बारह अंगों में स्थानांग तीसरा है। वर्तमान में वह जिस रूप में उपलब्ध है उसका संकलन बलभी वाचना के समय देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के तत्त्वावधान में वीरनिर्वाण के बाद १८० वर्ष के आस पास हुआ है । उसमें दस अध्ययन या प्रकरण हैं, जिनमें यथाक्रम से १, २, ३ प्रादि १० पर्यन्त पदार्थों व क्रियानों का निरूपण किया गया है। उदाहरण स्वरूप प्रथम स्थानक में एक प्रात्मा है, एक दण्ड है, एक क्रिया है, एक लोक है; इत्यादि । इसी प्रकार द्वितीय स्थानक में लोक में जो भी वस्तु विद्यमान है वह दो पदावतार युक्त है। जैसे -जीव-अजीव, त्रस-स्थावर, इत्यादि। इसी क्रम से अन्तिम दसम स्थान में १०-१० पदार्थों का संकलन किया गया है।
प्रकृत में चौथे अध्ययन या स्थानक में ४-४ पदार्थों का निरूपण किया गया है। वहां चार प्रकार का ध्यान भी प्रसंगप्राप्त हुआ है। उसका निरूपण करते हए वहां सामान्य से ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार भेदों का निर्देश किया गया है। तत्पश्चात् उनमें से प्रत्येक के भी चार-चार भेदों का निर्देश करते हुए यथासम्भव उनके चार-चार लक्षणों, चार चार पालम्जनों और चार चार अनुप्रेक्षानों का भी निर्देश किया गया है।
स्थानांग प्ररूपित यह सब विषय प्रकारान्तर से ध्यानशतक में आत्मसात् कर लिया गया है। साथ ही उसे स्पष्ट करते हुए यहां कुछ अधिक विस्तृत भी किया गया है । यथा-- १ प्रार्तध्यान
स्थानांग में चार प्रकार के आर्तध्यान में से प्रथम प्रार्तध्यान के स्वरूप को प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि अमनोज्ञ विषयों के सम्बन्ध से सम्बद्ध हुमा प्राणी जो उनके वियोगविषयक चिन्ता को प्राप्त होता है, इसे प्रार्तध्यान (प्रथम) कहा जाता है।
इसे कुछ अधिक स्पष्ट करते हुए ध्यानशतक में यह कहा गया है कि द्वेष के वश मलिनता को प्राप्त हुए प्राणी के जब अमनोज्ञ इन्द्रियविषयों और उनकी आधारभूत वस्तुओं का संयोग होता है तब वह उनके वियोग के लिए जो अधिक चिन्तातुर होता है कि किस प्रकार से ये मुझसे पृथक् होंगे इसे, तथा उनका वियोग हो जाने पर भी भविष्य में उनका पुनः संयोग न होने के लिए भी जो चिन्ता होती है उसे, प्रथम प्रार्तध्यान कहते हैं।
इसी प्रकार से स्थानांग में निर्दिष्ट द्वितीय और तृतीय पार्तध्यान के लक्षणों को भी यहां अधिक स्पष्ट किया गया है। विशेष इतना है कि स्थानांग में जिसे दूसरा आर्तध्यान कहा गया है वह ध्यानशतक में तीसरा है तथा जिसे स्थानांग में तीसरा प्रार्तध्यान कहा गया है वह ध्यानशतक में दूसरा है । १. एगे पाया। एगे दंडे । एगा किरिया। एगे लोए। स्थानक १, सूत्र १-४. २. जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपयोवप्रारं, तं जहा-जीवच्चेव अजीवच्चेव । तसे चेव थावरे चेव । ___ स्थानक २, सूत्र ८०. ३. अमणुन्नसंपयोगसंपउत्ते तस्स विप्पप्रोगसतिसमण्णागते यावि भवति । स्थाना..४-२४७, पृ.१८७. ४. ध्या. श. ६. ५. मणुन्नसंपयोगसंपउत्ते तस्स अविप्पयोगसतिसमण्णागते यावि भवति २, पायंकसंपयोगसंपउत्ते तस्स विप्पयोगसतिसमण्णागते यावि भवति ३। स्थाना. पृ. १८७-८८; घ्या. श.८ व ७.