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प्रस्तावना
पर ध्यानशतक में अमनोज्ञ विषयों के वियोग के लिए तथा उनका वियोग हो जाने पर भविष्य में पूनः उनका संयोग न होने के विषय में जो चिन्तन होता है उसे प्रथम प्रार्तध्यान कहा गया है। यह केवल उक्तिभेद है, अभिप्राय में कुछ मेद नहीं है।
मूलाचार में आर्तध्यान के समान रौद्रध्यान के भी स्वरूप का सामान्य से निर्देश किया गया है, उसके भेदों का नामनिर्देश नहीं किया गया (५-१६६)। फिर भी विषयक्रम के निर्देश से उसके चार भेद स्पष्ट दिखते हैं। यहां चतुर्थ भेद का विषय जो छह प्रकार का प्रारम्भ निर्दिष्ट किया गया है उसे हिंसा का ही द्योतक समझना चाहिए।
ध्यानशतक में भी यद्यपि रौद्रध्यान के उन चार भेदों का नामनिर्देश तो नहीं किया, फिर भी आगे वहां चार (१९-२२) गाथाओं द्वारा उनके लक्षणों का जो पृथक् पृथक् निर्देश किया गया है उससे उसके चार भेद स्पष्ट हो जाते हैं । आगे (२३) उनकी चार संख्या का भी निर्देश कर दिया गया है।
मूलाचार में धर्मध्यान के प्राज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इन चार भेदों का स्पष्टतया नामनिर्देश करते हुए उनके पृथक् पृथक् लक्षण भी कहे गये हैं (२०१५)।
ध्यानशतक में उसके उन चार भेदों का नामर्दिश तो नहीं किया गया, किन्तु उसके प्ररूपक भावना आदि बारह द्वारों के अन्तर्गत ध्यातव्य द्वार की प्ररूपणा (४५-६२) में जो आज्ञा, अपाय, विपाक और द्रव्यों के लक्षण व संस्थान आदि के स्पष्टीकरणपूर्वक उनके चिन्तन की प्रेरणा की गई है उससे उसके वे नाम स्पष्ट हो जाते हैं ।
विशेष इतना है कि मूलाचार में उसके द्वितीय भेद के लक्षण में जहां कल्याणप्रापक उपायों, जीवों के अपायों और उनके सुख-दुख को चिन्तनीय कहा गया है (५.२०३) वहां ध्यानशतक में रागद्वेषादि में वर्तमान जीवों के उभय लोकों से सम्बद्ध अपायों को चिन्तनीय निर्दिष्ट किया गया है (५०)। इसके अतिरिक्त मूलाचार में धर्मध्यान के चतुर्थ भेद के लक्षण को प्रगट करते हुए उसमें ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक के आकारादि के चिन्तन के साथ अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन की भी पाबश्यकता प्रगट की गई है तथा आगे उन अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षाओं के नामों का निर्देश भी कर दिया गया है (५, २०५-६)। परन्तु ध्यानशतक में व्यापक रूप में उसका व्याख्यान करते हुए यह कहा गया है कि धर्मध्यानी को उसमें द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, आसन, विधान, मान (प्रमाण) और उनकी उत्पादादि पर्यायों के साथ ऊर्ध्वादि भेदों में विभक्त लोक के स्वरूप का भी चिन्तन करना चाहिए । इसके अतिरिक्त यहां यह भी कहा गया है कि जीव के स्वरूप, उसके संसार परिभ्रमण के कारण, और उससे उद्धार होने के उपाय का भी विचार करना आवश्यक है (५२-६२) । यहां अनुप्रेक्षा द्वार एक पृथक् ही है जहां यह कहा गया है कि ध्यान के विनष्ट होने पर मुनि अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन में उद्यत होता है (६५) । यहां उन अनित्यादि भावनाओं की संख्या और नामों का कोई निर्देश नहीं किया गया।
मूलाचार में शुक्लध्यान के प्रसंग में इतना मात्र कहा गया है कि उपशान्तकषाय पृथक्त्व-वितर्कवार ध्यान का, क्षीणकषाय एकत्व-वितर्क-प्रवीचार ध्यान का, सयोगी केवली तीसरे सूक्ष्मक्रिय ध्यान का और अयोगी केवली समच्छिन्नक्रिय ध्यान का चिन्तन करता है (२०७-८)। परन्तु ध्यान शतक में उसके पालम्बन व क्रम (योगनिरोधक्रम) आदि की चर्चा करते हुए ध्यातव्य के प्रसंग में पृथक्त्व-वितर्क-सविचार आदि चार प्रकार के शुक्लध्यान के पृथक् पृथक् लक्षणों का भी निर्देश किया गया है
१. तत्त्वार्थसूत्र में (६-३६) भी उसके इन चार भेदों की सूचना विषयभेद के अनुसार ही की गई है। २. टीकाकार हरिभद्र सूरि ने उसके स्पष्टीकरण में अनित्य, अशरण, एकत्व और संसार इन चार
भावनाओं का निर्देश किया है (इसका प्राधार स्थानांग का ध्यान प्रकरण रहा है-सूत्र २४७, पृ. १८८) । इसी प्रसंग में आगे हरिभद्र सूरि ने प्रशमरतिप्रकरण से बारह भावनाओं के प्ररूपक पद्यों को भी उद्धृत किया है।