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ध्यानशतक
हुआ करता है । इस वस्तुस्थिति को समझकर धीर पुरुष मोह को प्राप्त नहीं होते हैं। शीत-उष्ण और सुख-दुख के देने वाले जो इन्द्रियविषय आगमन के साथ विनष्ट होने वाले हैं उनको तू सह-स्वभावतः नष्ट होने वाले उनके लिए शोक मत कर। हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख और सुख को समान समझने वाले जिस पुरुष को वे क्षणभंगुर विषय व्याकुल नहीं किया करते हैं वह अमरत्व के योग्य होता है-जन्ममरण से रहित होकर मुक्त हो जाता हैं। जो असत् है उसका कभी सद्भाव नहीं रहता और जो सत् है उसका कभी प्रभाव नहीं होता, इस सत्-असत् के रहस्य को तत्त्वज्ञ जन ही जानते हैं। इस प्रकार अविनाशी व नित्य शरीरधारी (जीव) के जो ये शरीर हैं वे तो विनश्वर ही हैं; अतएव तू इस वस्तुस्थिति को समझकर युद्ध कर-उससे विमुख न हो। इत्यादि प्रकार से यहां अर्जुन को शरीर की नश्वरता और प्रात्मा की नित्यता का विस्तार से उपदेश दिया गया है।
यहां स्थितप्रज्ञ के स्वरूप को प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि हे पार्थ ! मनुष्य जब मनोगत सब इच्छाओं को छोड़कर अपने आप अपने में ही सन्तुष्ट होता है तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। स्थितप्रज्ञ मुनि दुःखों में उद्विग्न न होकर सुख की ओर से निःस्पृह रहता हुअा राग, भय और क्रोध से रहित होता है। आगे वहां और भी यह कहा गया है कि जो पुरुष विषयों का ध्यान करता है उसकी उनमें जो पासक्ति होती है उससे काम, काम से क्रोध, क्रोध से सम्मोह, सम्मोह से स्मृतिविभ्रम, स्मृतिविभ्रम से बुद्धि का नाश और उस बुद्धिनाश से वह स्वयं नष्ट हो जाता है-कल्याणकर मार्ग से भ्रष्ट होकर कष्ट सहता है । (यह भगवद्गीतोक्त सन्दर्भ जैन तत्त्वज्ञान-विशेषकर आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानसे कितना मिलता हआ है, यह ध्यान देने के योग्य है।)
आगे छठे अध्याय में योग के स्वरूप को दिखलाते हुए यह कहा गया है कि जो कर्म के फल की अपेक्षा न रख कर कर्तव्य कार्य को करता है वही वस्तुतः संन्यासी और योगी है, केवल अग्नि और क्रिया (कर्म) से रहित योगी और संन्यासी नहीं हैं, क्योंकि संन्यास का नाम ही तो योग है। जिसने संकल्षों का संन्यास (त्याग) नहीं किया है ऐसा कोई भी पुरुष योगी नहीं हो सकता। जब पुरुष इन्द्रिय विषयों में और कर्मों में प्रासक्त नहीं होता तब समस्त संकल्पों का परित्याग कर देने वाले उसको योग पर प्रारूढ़ कहा जाता है। प्राणी अपने आप ही अपना उद्धार कर सकता है और अपने आप ही अपने को दुर्गति में भी डाल सकता है। यथार्थ में वह स्वयं ही अपना बन्धु (हितैषी) और स्वयं ही अपना शत्रु है। जिसने आत्मा के द्वारा आत्मा को जीत लिया है वही अपना बन्धु है तथा जिसने अपने ऊपर विजय प्राप्ल नहीं की है उसे ही अपना शत्र समझना चाहिए। जिसने इन्द्रियों और मन को जीत लिया है तथा जो शीत-उष्ण, सुख-दुख और मान-अपमान में अतिशय शान्त है-राग-द्वेष से रहित हो चुका हैउसके पास परमात्मा है।
जिसकी आत्मा ज्ञान-विज्ञान से सन्तुष्ट हो चुकी है, जो पत्थर और सुवर्ण में समानता की बुद्धि रखता हुआ कूटस्थ है-सदा समान रहने वाला है तथा जितेन्द्रिय है, ऐसे योगी को युक्त-योग से संयुक्त-कहा जाता है। ऐसा योगी सुहृत्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य व वन्धु जनों के विषय में तथा सत्पुरुषों और पापियों के भी विषय में समबुद्धि रहता है- उनमें न किसी से राग करता है और न अन्य से द्वेष भी करता है।
आगे भी ३८ तक द्रष्टव्य हैं।
१. भ. गी. २, १२-१८; २. वही २, ५४-५५. ३. वही २, ६२-६३, ४. वही ६, १-२. ५. वही ६, ४-७. ६. बही ६, ६.