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प्रस्तावना
१५
ध्यान श्रुतकेवली के और अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली के होते हैं'। सूत्र में उपयुक्त 'च' शब्द के प्राश्रय से सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि श्रुतकेवली के पूर्व के दो शुक्लध्यानों के साथ धर्म्यध्यान भी होता है । विशेष इतना है कि श्रेणि चढ़ने के पहिले धर्म्यध्यान श्रौर दोनों श्रेणियों में वे दो शुक्लध्यान होते हैं ।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के धर्म्यध्यान के साथ नादि के दो शुक्लध्यान भी होते हैं। यहां भाष्य में यह विशेष सूचना की गई है कि आदि के वे दो शुक्लध्यान पूर्ववेदी के — श्रुतकेवली के होते हैं । सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार जहां 'पूर्ववित्' शब्द को मूल सूत्र में ही ग्रहण किया गया है वहां भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार उसे मूल सूत्र में नहीं ग्रहण किया गया है, पर उसकी सूचना भाष्यकार ने कर दी है । अन्तिम दो शुक्लध्यान यहां भी केवली के अभीष्ट हैं " ।
ध्यानशतक में भी यही अभिप्राय प्रगट किया गया है कि पूर्व दो शान्तमोह और क्षीणमोह तथा अन्तिम दो शुक्लध्यानों के ध्याता सयोग होते हैं (६४) ।
धवला के अनुसार पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान का ध्याता चौदह, दस अथवा पूर्वो का धारक तीन प्रकार के प्रशस्त संहननवाला उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ होता है तथा द्वितीय एकत्ववितर्क- अवीचार शुक्लध्यान का ध्याता चौदह, दस प्रथवा नौ पूर्वो का धारक वज्रर्षभवज्रनाराचसंहन व प्रन्यतर संस्थान वाला क्षायिकसम्यग्दृष्टि क्षीणकषाय होता है । विशेष रूप से यहां उपशान्तकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क - प्रवीचार और क्षीणकषायकाल में पृथक्त्ववितर्क - वीचार शुक्लध्यान की भी सम्भावना प्रगट की गई है। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामक तीसरा शुक्लध्यान सूक्ष्म काययोग में वर्तमान केवली के और चौथा समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान योगनिरोध हो जाने पर शैलेश्य अवस्था में – प्रयोग केवली के—कहा गया है ।
शुक्लध्यानों के ध्याता उपकेवली और प्रयोग केवली
हरिवंशपुराण में शुक्ल और परमशुक्ल के भेद से शुक्लध्यान दो प्रकार का कहा गया है। इसमें प्रत्येक दो-दो प्रकार का है— पृथक्त्ववितर्क सवीचार व एकत्ववितर्क प्रवीचार तथा सूक्ष्मक्रिशाप्रतिपाती व समुच्छिन्न क्रियानिवर्तक । इनमें प्रथम शुक्लध्यान दोनों श्रेणियों के गुणस्थानों— उपशमश्रेणि के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय व उप-शान्तमोह तथा क्षपकश्रेणि के प्रपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण,
१. शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः । परे केवलिनः । त. सू. ६, ३७-३८.
२. च शब्देन धर्म्यमपि समुच्चीयते । तत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति श्रेण्यारोहणात् प्राग्धर्म्यम्, श्रेण्योः शुक्ले इति व्याख्यायते । स. सि. ६-३७; त. वा. ९, ३७, २३.
३. शुक्ले चाद्ये । त. सू. ६-३६.
४. श्राद्ये शुक्ले ध्याने पृथक्त्ववितकें कत्ववितकें पूर्वविदो भवतः । त. भाष्य ६-३६.
५. परे केवलिनः । त. सू. ६-४०.
६. घव. पु. १३, पृ. ७८.
७. घव. पु. १३, पृ. ७६.
८. उवसंतकसायमि एयत्तविदक्का वीचारे संते 'उवसंतो दु पुषत्तं' इच्चेदेण विरोहो होदि त्ति णासंक णिज्जं, तत्थ पुत्तमेवेति नियमाभावादो । ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्थ एयत्तविदक्का वीचारज्झाणमेव, जोगपरावत्तीए एगसमय परूवणण्णहाणुववत्तिबलेण तदद्धादीए पुषत्तविदक्कवीचारस्स वि संभवसिद्धीदो । धव. पु. १३, पृ. ८१.
१. धव. पु. १३, पृ. ८३-८६. १०. धव. पु. १३, पृ. ८७.