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-१००] ग्रन्थकर्तुः प्रशस्तिः
२३ किसी का माश्रय लेता है। ऐसा वह गुणों के भण्डारस्वरूप सर्वसाधु पर्यक प्रासन से योग (समाषि) में स्थित होता हुआ अन्त में संन्यास को करके-कषाय व चतुर्विष माहार का परित्याग करके सल्लेखनापूर्वक मृत्यु को प्राप्त होकर-उत्तम गति से युक्त हुआ। इस प्रकार से वह सर्वसाधु-इस नाम से प्रसिद्ध को प्राप्त मुनि अथवा सर्वश्रेष्ठ साधु-अतिशय पूजनीय हुमा En
तस्याभवच्छू तनिधिजिनचन्द्रनामा शिष्यो नु तस्य कृतिभास्करनन्दिनाम्ना। शिष्येण संस्तवमिमं निजभावनाथं ध्यानानुगं विरचितं सुविदो विदन्तु ॥१०॥
उस सर्वसाधु का जिनचन्द्र नामक शिष्य हुआ जो श्रुत का पारगामी था। उसके-जिनचन्द्र के-पुण्यशाली भास्करनन्दी नामक शिष्य ने ध्यान के अनुसरण करने वाले-ध्यान की प्ररूपणा युक्तइस स्तोत्र को अपनी भावना के लिए प्रात्मचिन्तन के लिए-रचा है, यह विद्वज्जन ज्ञात करें॥१०॥
॥ समाप्त।
पाठभेद जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १२, किरण २, पृ. ५४, १.६ (जनवरी १९४६) में प्रकाशित प्रस्तुत ध्यानस्तव में और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित (सन् १९७३) ध्यानस्तव में जो कुछ महत्त्वपूर्ण पाठभेद रहे हैं उनका निर्देश यहां किया जाता है- श्लोक जैन-सिद्धान्त-भास्कर
भारतीय ज्ञानपीठ दोषहम्
दोषदम् त्र्यैक [त्र्येक
क दृष्टिसमाश्रयम्
दृष्टिममाश्रयम् बहिरन्तश्चतु
बहिरन्यच्चतुभावभिदात्मकः
भावाभिधात्मकः धर्मस्थितेर्मतः
धर्मः स्थितेर्मतः यथास्थितम्
यथास्थितिम् भूतभावि
भूतं भावि तमतार्थानां
त्तममर्थानां
द्वेधवं मय॑स्त्वय्येकान
मय॑स्त्वयैकाग्र हेहि हाहीति
एहि याहीति नोद्घाट्येद्वान दत्त
नोद्घाटयेद् द्वार्न धत्तं शिष्यो नु
शिष्योऽनु
द्वैधवं