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सम्यग्दर्शनप्ररूपणा
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मिथ्यात्वं यच्च सम्यक्त्वं सम्यङ् मिथ्यात्वमेव च । क्रोधादीनां चतुष्कं च संसारानन्तकारणम् ।। श्रद्धाप्रतिघात्येतत् ख्यातं प्रकृतिसप्तकम् । एतस्योपशमादोपशमिकं दर्शनं मतम् ॥ ८६ ॥ क्षयात्क्षायिकमाम्नातं त्वया देव सुनिर्मलम् । सम्यक्त्वोदीरणात्षण्णामुदयाभावतस्तथा ॥ तासामेव तु सत्वाच्च यज्जातं तद्धि वेदकम् । सम्यग्दर्शनमीदृक्षं निश्चितं मोक्षकांक्षिणाम् ॥
मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यङ् मिथ्यात्व ये तीन दर्शनमोहनीय तथा अनन्त संसार के कारणभूत क्रोधादि चार (अनन्तानुबन्धिचतुष्टय) ये सात प्रकृतियां श्रद्धान की घातक प्रसिद्ध हैं- सम्यग्दर्शन का घात करने वाली हैं। इनके उपशम से श्रौपशमिक सम्यग्दर्शन माना गया है। हे देव ! और उन्हीं के -क्षय से जो अतिशय निर्मल सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे आपने क्षायिक सम्यग्दर्शन कहा है । सम्यक्त्व प्रकृति की उदीरणा से, शेष छह प्रकृतियों के उदयाभाव से तथा उन्हीं के सत्त्व से – सदवस्थारूप उपशम सेजो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है वह वेदक सम्यग्दर्शन कहलाता है । सम्यक्त्व प्रकृति के वेदन से – उदय में रहने से उसका 'वेदक' यह सार्थक नाम है । तथा उपर्युक्त सात प्रकृतियों के क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण उसका 'क्षायोपशमिक' यह दूसरा नाम भी सार्थक है । इस प्रकार का वह सम्यग्दर्शन निश्चित ही मोक्षाभिलाषी जीवों के होता है ॥
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विवेचन - विपरीत अभिनिवेश से रहित दृष्टि का नाम सम्यग्दर्शन है उपर्युक्त भेदों के प्रति • रिक्त वह सम्यग्दर्शन निश्चय और व्यवहार के भेद से भी दो प्रकार का है। शरीर आदि से भिन्न निर्मल श्रात्मस्वरूप का श्रद्धान करना, यह निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है तथा जीवादि सात तत्त्वों का जो यथार्थ श्रद्धान होता है, वह व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है । जो जीव श्रनादि काल से मिथ्यादृष्टि रहा है उसके प्रथमत: प्रोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है, जो अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है । तत्पश्चात् उस सम्यग्दर्शन का धारक जीव मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व को प्राप्त हुना कोई जीव वेदक सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है, कोई प्रसन्न भव्य जीव क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है तथा कितने ही मिथ्यादृष्टि बने रहते हैं । इस सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो जाने पर जीव को हेय उपादेय का विवेक हो जाता है। वह अधिक से अधिक अर्व पुद्गलपरावर्तन काल तक ही संसार में रहता है, तदनन्तर वह नियम से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है ॥८५-८८ ॥
इस प्रकार प्रस्तुत मोक्षमार्ग में प्रथमतः सम्यग्दर्शन का निरूपण करके अब क्रमप्राप्त सम्यग्ज्ञान का स्वरूप कहा जाता है
जीवादीनां पदार्थानां यो याथात्म्यविनिश्चयः । तदभ्यधायि विज्ञानं सम्यग्दृष्टिसमाश्रयम् ॥ जीवादि पदार्थों का जो यथार्थतः निश्चय होता है उसे विज्ञान - विशिष्ट ज्ञान (सम्यग्ज्ञान ) - कहा गया है। वह सम्यग्दृष्टि के श्राश्रय से होता है, मिथ्यादृष्टि के नहीं होता ॥ ८६ ॥
अब अवसर प्राप्त चारित्र का स्वरूप दो श्लोकों द्वारा कहा जाता है
ज्ञानिनं मुक्तसंगस्य संसारोपायहानये । प्रशस्तापूर्णभावस्य सम्यक् श्रद्धानधारिणः ॥६०॥ कर्मादाननिमित्तानां क्रियाणां यन्निरोधनम् । चारित्र यन्मुमुक्षोः स्यान्निश्चितं मोक्षकारणम् ॥
समीचीन श्रद्धान का धारक — निर्मल सम्यग्दर्शन से सम्पन्न — जो सम्यग्ज्ञानी जीव संसार के उपायभूत मिथ्यादर्शनादि के नष्ट करने के लिए प्रशस्त भावों में उद्यत होकर ममत्व बुद्धि से रहित होता हुआ कर्मग्रहण की कारणभूत क्रियानों का निरोध करता है उस मोक्षाभिलाषी जीव के सम्यक्चारित्र होता है । वह निश्चित ही मोक्ष का कारण होता है । अभिप्राय यह है कि संसार की कारणभूत क्रियाओं को अशुभ प्रवृत्ति को छोड़कर सदाचार में प्रवृत्त होना, यह सम्यक् चारित्र कहलाता है ॥०-६१॥